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मृत्यु और परलोक यात्रा समय का पता चल जाता है । निर्मल चित्त वालों को भी यह पता चल जाता है।
मृत्यु के समय मनुष्य को विशेष अनुभूति होती है जिससे वह घबरा जाता है व बेहोश हो जाता है। उसके प्राण इसी बेहोशी में निकलते हैं जिससे उसको पता ही नहीं चलता कि मैं मर गया हूं, मेरा शरीर मुझसे अलग हो गया है, अब मैं अशरीरी जीवात्मा मात्र हूं। जो भयभीत नहीं होता उसे अपने प्राण निकलने का बराबर ध्यान रहता है । यह जीवन भर की गई साधना व धैर्य के कारण ही सम्भव है, अन्यथा नहीं। जवानी में या दुर्घटना से मरने पर उसे अपनी मृत्यु का अनुभव होता है किन्तु नब्बे वर्ष का होकर मरने पर उसे इसका अनुभव नहीं होता क्योंकि अनुभव करने वाले यन्त्र पहले ही मर चुके होते हैं। मरे हुए व्यक्ति की स्मति तीन दिन रहती है फिर वह भूल जाता है। कुछ की तेरह दिन रहती है।।
आत्मा के निकलने पर भी शरीर की ऊर्जा तीन दिन तक उसमें से निकलती रहती है जैसे वृक्ष के काटने पर भी उसे सूखने में कई दिन लग जाते हैं । हृदय की धडकन बन्द होने पर । डाक्टर लोग मनुष्य को मत घोषित कर देते हैं जिसे 'क्लीनिकल डेथ' (शारीरिक मृत्यु) कहा जाता है किन्तु जब शरीर को सम्पूर्ण ऊर्जा बाहर निकल जाती है तो उसे "बायोलोजिकल डेथ' (जैविक मृत्यु) कहा जाता है। इसमें तीन दिन लग जाते हैं । जैविक मृत्यु से पूर्व यदि विशेष विधियों द्वारा आत्मा का शरीर में पुनः प्रवेश कराया जा सके तो वह पुनः जीवित हो सकता है, जैसे पौधा जमीन से उखाड़ देने पर भी थोड़े समय बाद ही पुनः लगाने पर जीवित हो जाता है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जीवात्मा शरीर को छोड़