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अन्तराल में भटकती आत्माएँ
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मनुष्य जैसा अनुभव और मानस इस संसार से लेकर जाता है। वैसा ही अनुभव उसको अन्तराल में होता है। एक प्रकार से यह उसका प्रायश्चित का समय है जिसमें वह बुरे कर्मों का प्रायश्चित करता है तथा अच्छे कर्मों से आनन्द का अनुभव करता है।
देवात्मा सुख शान्ति का अनुभव करती है जिसे "स्वर्ग' कहा जाता है तथा प्रेतात्मा को वासना से ग्रस्त रहने के कारण दुःख व कष्टों का अनुभव होता है। क्योंकि वहाँ इनकी तृप्ति का कोई साधन नहीं होता। वासना की तृप्ति भौतिक शरीर से ही होती है जो उसके पास होता नहीं। इसी से उसे पीड़ा का अनुभव होता है। ये प्रेतात्माएँ वहाँ दुःख, घृणा, ग्लानि,.. पश्चाताप, द्वेष, ईर्ष्या में जलती रहती हैं। यह स्वर्ग व नरक की अनुभूति उसे अपने ही मानस द्वारा होती है।
अन्तराल में ये जीवात्माएँ न स्थिर होती हैं न गतिशील । वहाँ स्थान और समय भी नहीं होता । ये आत्माएँ शरीर नहीं होने से न खा सकती हैं न बोल सकती हैं। सूंघना, छूना, अंधेरे व प्रकाश का अनुभव भी उन्हें नहीं होता। सर्दी-गर्मी का भी अनुभव नहीं होता । अन्तराल में जीवात्मा का केवल मन, चित्त व अहंकार होता है जिसमें सभी जन्मों के संस्कार बीज रूप में रहते हैं। शरीर मिलने पर ही ये पुनः सक्रिय होते
___ यह वैसा ही है जैसे कार चलाने का अनुभव कार न होते हुए भी विद्यमान रहता है । ये आत्माएँ केवल सुन सकती हैं, देख सकती हैं किन्तु ये कोलाहल से दूर किसी सुनसान स्थान पर रहना पसन्द करती हैं। ये एक क्षण में अपने ही क्षेत्र में