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६. मृत्यु का अनुभव (अ) मृत्यु का भय
जो व्यक्ति शरीर को ही सब कुछ मानता है वह समझता है कि शरीर के नाश होने से जीवन भी नष्ट हो जाएगा किन्तु जीवन शरीर का ही नहीं है बल्कि जीवात्मा है जिसका शरीर के नाश होने से नाश नहीं होता। मनुष्य योनि में प्रथम जन्म से लेकर मोक्ष पर्यन्त की सम्पूर्ण अवधि इस जीवात्मा का जीवन है तथा यही उसकी सम्पूर्ण आयु है। जिस प्रकार दिन भर के श्रम के बाद मनुष्य को रात्रि-विश्राम की आवश्यकता होती है जिसे हम मृत्यु नहीं कहते उसी प्रकार शरीर का एक जीवन जीवात्मा का एक दिन है जिनमें किए गए श्रम से थक कर उसे विश्राम की आवश्यकता होती है । मृत्यु इस विश्राम की व्यवस्था है। :' इस विश्राम काल में जीवात्मा अपनी थकान मिटाती है, जीवन में प्राप्त किए अनुभवों का पाचन करती है तथा नई ताजगी के साथ नये जीवन में प्रवेश करती है। शरीर का जीवन उस जीवात्मा के सम्पूर्ण जीवन की एक कड़ी है । शरीर का हर जीवन उस जीवात्मा की एक कक्षा है जिसे उत्तीर्ण कर वह अगली कक्षा में प्रवेश करता है । इस प्रकार बार-बार
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