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जीवात्मा का स्वरूप
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पुनर्जन्म का कारण भी मन ही है तथा यह नये जीवन में भी साथ रहता है । मृत्यु पर सिर्फ पाँच भूत छूटते हैं जो जड़ हैं।
(क) जीवात्मा का लिंग निर्धारण
संस्कृत में “आत्मा" शब्द नपुंसक लिंग है । आत्मा न स्त्री है न पुरुष। स्त्री और पुरुष के रूप में जन्म लेने का आधार जीवात्मा से जुड़ी मान्याताएँ ही हैं। यह जीवात्मा भीतर से जैसी इच्छा करती है वैसे ही संस्कार उसके गहरे हो जाते हैं जो उसके व्यक्तित्व का निर्धारण करते हैं। किसी विशेष अनुभव की प्रतिक्रिया से इन मान्यताओं में आकस्मिक परिवर्तन भी आ सकता है या धीरे-धीरे भी परिवर्तन होता है। ये मान्यताएँ अन्तःकरण से सम्बन्धित हैं।
जीवात्मा पुरुष रूप धारण करेगी या स्त्री रूप यह अहंभाव की मान्यता पर निर्भर है। उसमें जैसी इच्छा उमड़ेगी वैसी ही मान्यताएँ जड़ जमा लेंगी तथा वैसा ही लिंग निर्धारण भी होगा। वाल्मीकी, अजामिल, आम्बपाली, अंगुलिमाल ने अपनी मान्यताएँ बदलीं तो उनका व्यक्तित्व ही बदल गया। लिंग परिवर्तन भी ऐसे ही मान्यताएँ बदलने से होता है । जब कोई जीवात्मा अपने वर्तमान लिंग के प्रति गहराई से असंतुष्ट होती है या उसकी मूलभूत प्रवृत्तियों की दिशा ही बदल जाती है तो लिंग परिवर्तन समेत व्यक्तित्व में अनेक परिवर्तन हो सकते हैं। इसी से इस जन्म की नारी अगले जीवन में पुरुष और इस जन्म का पुरुष अगले जीवन में नारी बन सकता है। व्यक्तित्व में जो प्रवृत्तियाँ प्रधान हो जाती हैं, जीवात्मा का वही लिंग बन जाता है।