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जीवात्मा का स्वरूप
कर्म ब्रह्म में सूक्ष्म रूप में उसी प्रकार विद्यमान रहते हैं जिस प्रकार जल में घुलकर भी नमक अपनी सत्ता को नहीं मिटा देता। प्रलयकाल में जीव अपने आप मुक्त नहीं होते। नये कल्म में फिर उसी के अनुसार रचना होती है। यह जीवात्मा नित्य, शाश्वत व पुरातन है। शरीर के नाश होने से इसका नाश नहीं होता। जीव और जड़ प्रकृति दोनों ही प्रलय काल में अपने धर्मों का परित्याग नहीं करते।
जीवात्मा नित्य है, उसका कभी नाश नहीं होता । मृत्यु के बाद वह अपने कर्म संस्कारों के अनुसार परलोक में जाकर पुन: नया शरीर धारण करता है। प्रलय काल में यह जीवात्मा अपने कारण शरीर सहित अव्यक्त रूप से ब्रह्म में विलीन रहता है तथा सृष्टि काल में वह पुनः सूक्ष्म एवं स्थूल रूप से प्रकट होता है । यह जीवात्मा जन्म और मृत्यु से रहित है। न इसे उत्पन्न किया जा सकता है, न इसका नाश ही होता है । यह भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में यात्रा कर रहा है । भौतिक दृष्टि से यह अपनी यात्रा स्थूल शरीर में प्रवेश करके करता है तथा तात्विक दृष्टि से यह भिन्न-भिन्न मानसिक भूमिकाओं में से गुजर कर निरन्तर विकास को प्राप्त होता रहता है । शरीर से पूर्व भी इसका अस्तित्व था एवं मृत्यु के बाद भी रहेगा। शरीर तैयार होने पर यह उसमें प्रवेश करता है तथा शरीर व्यर्थ हो जाने पर यह उसे छोड़ देता है ।
माँ-बाप के रासायनिक तत्व मिलकर उस सैल का निर्माण करते हैं जो शरीर का पहला घटक है, तो उसमें आत्मा प्रवेश कर जाता है। यदि ऐसा घटक विज्ञान की प्रयोगशाला में निर्मित किया जा सके तो जीवात्मा उसमें भी प्रविष्ठ हो