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मेह मंदर पुराण
का जो सर्प बैठा हुआ था। उसने पूर्वभव के बैर के कारण महाराज को काट दाया और राजा सिंहसेन मूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। तब रामदत्ता देवी व उनके दोनों पुत्र वहां आये और देखकर मूच्छित हो गये ।
उस समय एक प्रसिद्ध मंत्रवादी गारुडी को बुलाया गया। उसने मंत्रों के द्वारा विष उतारना चाहा पर विष उतरा नहीं तो उसने एक हवन कुंड बनवाया और मारे सों को बुलाकर कहा कि इस राजा को किसने काटा है। तुम सब सर्प इस हवन कुर में कूद जाओ। यदि तुम सच्चे हो तो इसमें नहीं जलोगे। तत्काल वे सर्प कूद गये और वे उसमें नहीं जले किन्तु वह विषधर सर्प वहां से नहीं आया। तब उसको बुलाकर कहा कि तुम इस हवन कुंड में कूद जाओ। वह कूद गया और तत्काल जलकर राख हो गया। और वह मरकर काल नाम के वन में चमरी मृग हो गया । और सिंहसेन भर कर सल्लकी नाम के वन में अश्वनी कोड नाम का हाथी हो गया।
तदनंदर राजा सिंहसेन के मरने के बाद उनकी पटरानी रामदत्ता देवी प्राण देने को तैयार हुई । वहां रहने वाले सत्पुरुषों ने धर्म का उपदेश देते हुए संसार की अस्थिरता बताकर धर्म में रुचि उत्पन्न कराई । तब उस महारानी ने कई दिनों के पश्चात् एक दिन अपने दोनों पुत्रों को बुलाया और बड़े पुत्र सिंहचंद्र का राज्याभिषेक कराया। और छोटे पुत्र पूर्णचंद्र को युवराज पद दिया। तदनंतर दोनों पुत्र धर्मनीति तथा न्यायनीति से राज्य को चलाने लगे।
राजा सिंहसेन के मरण के समाचार सुनकर शांतिमती और हिरण्यवती नाम की दो प्रायिकाएं रामदत्ता देवी के पास आई। उन दोनों को देखते ही महारानी अत्यन्त शोक करने लगी। उन दोनों प्रायिकाओं ने रामदत्ता देवी को समझाया कि यह संमार असार है । मोह की महिमा है। जहां जन्म है। वहां मरण है अतः तुम शोक करना छोड़ दो। इससे तिर्यंच गति का बंध होता है। यथाशक्ति आप व्रत धारण करके स्त्रीपर्याय को सार्थक करो। यही आपके लिये योग्य है । उस रामदत्ता देवी ने इन प्रायिकानों से धर्मोपदेश सुनकर वैराग्य भावना में लीन होकर जिन दीक्षा लेने का विचार किया और अपने पुत्रों को बुलाकर समाचार कहे। इस बात को सुनकर सिंहचंद्र कहने लमा कि हे माताजी! आप मुझे छोड़कर जाना चाहते हैं ! मेरे द्वारा ऐसा कौनसा अपराध हो गया है ? रामदत्ता ने पुत्र को समझाया कि हे पुत्र ! मुझे आत्मकल्यारण करने की भावना जाग्रत हो गई है, इसमें तुम विघ्न मत डालो। तब पुत्र ने प्रात्मकल्याण करने हेतु स्वीकृति दे दी। तब रामदत्ता देवी अपने पुत्र की सम्मति पाते ही दोनों पार्यिकानों के पास जाकर माथिका दीक्षा देने की प्रार्थना की। उसी समय वे दोनों राजकुमार अपनी माता के पास पहुंचे और माता के मायिका दीक्षा लेने के बाद वे दोनों कुमार घर पर प्राकर सुख से समय व्यतीत करने लगे।
एक दिन राजा सिंहचन्द्र को अपनी माता की याद आई और उसके मन में वैराग्य की भावना जागृत हो गई। तब एक दिन पूर्णचंद्र नाम के मुनिराज चर्या के लिये उस
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