Book Title: Mahakavi Bramha Raymal Evam Bhattarak Tribhuvan Kirti Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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महाकवि ब्रह्म रायमल्ल
ब्रह्म रायमल्ल का जन्म कब और कहाँ हुप्रा । वे किस देश एवं जाति के थे और किस प्रेरणा से उन्होंने गृहत्याग किया इस सम्बन्ध में हमें अभी तक कोई सामग्री उपलब्ध नहीं हुई। इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा कहाँ प्राप्त की तथा विवाह होने के पश्चात् गृह त्याग किया अथवा विवाह के पूर्व ही ब्रह्मचारी बन गये, इसके सम्बन्ध में भी न तो स्वयं कवि ने अपनी रचनाओं में उल्लेख किया है और न किसी अन्य विद्वान् ने अपनी रचना में ब्रह्म रायमल्ल का स्मरण किया है। इनके नाम के पूर्व 'ब्रह्म' शब्द मिलने से सम्भवतः रायमल्ल ब्रह्मचारी थे और अन्तिम समय तक ये ब्रह्मचारी ही बने रहे इसके अतिरिक्त हम अधिक कुछ नहीं कह सकते ।
पं० परमानन्द जी शास्त्री एवं डा० प्रेमसागर जैन ने ब्रह्मा रायमल्ल का परिचय देते हुए भक्तामर स्तोत्र वृत्ति के कर्त्ता ब्रह्म रायमल्ल एवं रास ग्रन्थों के निर्माता ब्रह्म रायमल्ल को एक ही माना है । 'भक्तामर स्तोष वृद्धि' में दूसरे ब्रह्म रायमल्ल ने जो अपने माता-पिता आदि का नामोल्लेख किया है उसी को आलोच्य ब्रह्म रायमल्ल के माता पिता मान लिया है। 'भक्तामर स्तोत्र वृत्ति' के कर्ता ब्रह्म रायमल्ल डुंबड यश के भूषण थे। इनके पिता का नाम मह्य एवं माता का नाम चम्पा था । ये जिन चरण कमलों के उपासक थे । इन्होंने महासागर तटभाग में समश्रित मीयापुर के चन्द्रप्रभु स्यालय में वर्णी कर्मसी के वचनों से 'भक्तामर स्तोत्र वृत्ति' की रचना विक्रम संवत् १६६७ में समाप्त की थी ।
हमारे विचार से बहा रायमल्ल नाम वाले दो भिन्न भिन्न विद्वान् हुए । प्रथम रायमल्ल रास ग्रन्थों के रचयिता थे जिन्होंने हिन्दी में काव्य रचना की तथा जिनकी संवत् १६१५ से संवत् १६३६ तक निर्मित एक दो नहीं किन्तु पूरी १५ रचनाएँ
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६. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह - प्रस्तावना- पृष्ठ संख्या ५१ १०. जैन शोध और समीक्षा— पृष्ठ संख्या
११.
श्रीमद् हूड-वंश-मंडणमणि झ ेति नामा वणिक् तद्भार्या गुणमंडिला व्रतश्रुता चम्पामितीताभिधा ||६| तत्पुत्रो जितपादकंजमधुपो रायादिमल्लोव्रती ।
च वृत्तिमियां स्वस्य नितरां नत्वा श्री (सु) बादीदुकं ||७|| सप्तषठ्यं किले वर्षे षोडशाख्ये हि संवते ( १६६७ )
प्राषाढ-वेतपक्षस्य पंचम्यां बुधवार ॥॥॥॥ ग्रीवापुरे महा सिन्धोस्तरभाग समाश्रिते प्रोत 'गदुर्ग संयुवते श्री चन्द्रप्रभसद्मनि ||६|| वणिनः कर्मसी नाम्नः वचनात् मयकाऽरचि । भक्तामरस्य सद्वृत्तिः रायमल्लेन वणिना ।।१०