Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 13
________________ कर्ता इन करणों का सदुपयोग कर भला कर सकता है और दुरुपयोग कर बुरा कर सकता है। ध्यान में शरीर, संसार के ममत्व और कषाय का आंशिक त्याग होता है। इनके ममत्व व सम्बन्ध का सर्वांश में त्यागकर शरीर और संसार से अतीत होना कायोत्सर्ग है। यदि इन करणों का सत् चर्चा, सत् चिन्तन, सदाचरण के रूप में सदुपयोग किया जाये तो ये राग, द्वेष आदि दोषों को गलाने में, क्षीण व शिथिल करने में सहायक हो सकते हैं। इस रूप में वैयावृत्य (सेवा), स्वाध्याय और ध्यान में इनका उपयोग साधना में बाधक नहीं है, परन्तु इनमें मन, वचन और काया का किसी-न-किसी रूप में आश्रय रहता है। देह का आश्रय रहते देहातीत अनुभूति 'कायोत्सर्ग' सम्भव नहीं है। इस प्रकार स्वाध्याय, ध्यान आदि कायोत्सर्ग के सहायक अंग हैं, परन्तु इनके रहते कायोत्सर्ग नहीं हो सकता। सहायक अंग होने के रूप में ध्यान और कायोत्सर्ग में एकता है, परन्तु लक्ष्य की दृष्टि से ध्यान साधन है और कायोत्सर्ग साध्य है, अत: दोनों में भिन्नता है। ध्यानावस्था में राग, द्वेष, मोह आदि दोषों की सत्ता रह सकती है, परन्तु कायोत्सर्ग निर्दोष वीतराग स्थिति का सूचक है। ध्यान तक विरक्ति भाव रहता है वह सम्प्रज्ञात समाधि है। कायोत्सर्ग में विरक्ति भाव वीतरागता में परिणत हो जाता है। फिर कुछ भी पाना, करना और जानना शेष नहीं रहता है अर्थात् लक्ष्य को उपलब्धि हो जाती है, यह असम्प्रज्ञात समाधि है। "जैन साधना का लक्ष्य मुक्ति है। मुक्ति का अर्थ बंधन से और पराधीनता से छुटकारा पाना है। राग-द्वेष बंधन हैं, राग-द्वेष से ही परालंबन होता है और परालंबन से राग-द्वेष पुष्ट होते हैं। परालंबन या पराश्रय ही परिग्रह है। परिग्रह पराधीनता को पुष्ट करता है। इस प्रकार राग-द्वेष और परालंबन का साधना में कहीं भी स्थान नहीं है। साधना है राग, द्वेष, परालंबन, पराश्रय, पराधीनता और परिग्रह से मुक्त होना। संवर और निर्जरा की सारी साधना इसी का अनुसरण करती है। निर्जरा के सारे भेद निवृत्ति रूप ही हैं, संवर में भी पाँच समिति को छोड़कर समस्त भेद निवृत्ति रूप हैं। पाँच समिति में भी शरीर से संबंधित, शरीर को चलाने के लिये जो क्रियाएँ प्राकृतिक विधान में करना अनिवार्य हैं, उनके लिये प्रवृत्ति करना है, वह भी समभावपूर्वक । साधक को अप्राप्त वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये कोई कामना (आरम्भ) नहीं करना है और न प्राप्त वस्तुओं की ममता (मूर्छापरिग्रह) करना है और न शरीर से तद्रूपता (अहंभाव) रखना है एवं आरम्भपरिग्रह का त्याग करना है। साधना में प्राप्त सामग्री के राग के निवारणार्थ उसका सेवा के रूप में सदुपयोग करना है। उसका सुख-भोग नहीं करना है। 12 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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