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निरोध होता है, जिससे नवीन कर्म-अर्जन व सर्जन अवरुद्ध होता है और कायोत्सर्ग से पूर्वबद्ध आसक्तियुक्त संस्कारों (कर्म - बंधनों) का क्षय होता है जिससे वीतरागता, सर्वज्ञता, पूर्ण चिन्मयता एवं सच्चिदानन्द (अक्षय, अखण्ड व अनंत सुख) का अनुभव होता है । प्रतिसंलीनता में निर्विकल्प स्थिति होती है। नवीन भोग प्रवृत्तियों का निरोध होने से चित्त शान्त होता है, सम्प्रज्ञात समाधि होती है और कायोत्सर्ग से वासनायुक्त वृत्तियों का क्षय होने से निर्विकल्प बोध होता है जिससे पूर्ण तत्त्वबोध होता है । असम्प्रज्ञात समाधि होती है, फिर कुछ भी जानना, देखना, पाना व करना शेष नहीं रहता है । यही सिद्धि प्राप्त करना है ।
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तप में कायोत्सर्ग का महत्त्व
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