Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 127
________________ इस सत्र में विशेष महत्त्व 'अप्पाणं वोसिरामि' का है, क्योंकि अपनत्व या ममत्व भी सब बन्धनों का, राग-द्वेष-मोह-कषाय आदि समस्त विकारों का कारण है, अतः अपनत्व व ममत्व का त्याग करना ही समस्त बन्धनों, विकारों, दोषों से मुक्त होना है। अपनत्व का त्याग वह ही कर सकता है जो प्राप्त शरीर, सामग्री, सामर्थ्य आदि को स्व से भिन्न 'पर' मानता है, अपनी नहीं मानता है। वह इनके आश्रय लेने को पराधीनता में आबद्ध होना मानता है और इस पराधीनता से मुक्त होना ही जिसका लक्ष्य है, वह ही सम्यग्दृष्टि है, स्व-पर भेदज्ञान ही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दृष्टि ही साधक होता है। उसकी साधना सम्यक्चारित्र व तप है। तपों में उत्कृष्ट व्युत्सर्ग तप है । व्युत्सर्ग की सिद्धि ध्यान से होती है। ध्यान चार प्रकार के हैं। इनमें आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान अशुभ होने से सर्वथा त्याज्य हैं। धर्म-ध्यान व शुक्ल ध्यान शुभ होने से इनका ध्यानतप में स्थान है। इनमें भी धर्म-ध्यान से शुक्ल ध्यान श्रेष्ठ है। शुक्ल ध्यान के स्थानांग सूत्र में चार लक्षण कहे हैं, यथा "सुक्कस्स झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ते तं जहा अवहे असम्मोहे विवेगे विउसग्गे" (स्थानांग सूत्र अ. 4 उ. 1); अर्थात् शुक्ल ध्यान के चार लक्षण हैं-1. अव्यथा, 2. असम्मोह, 3. विवेक और 4. व्युत्सर्ग । अव्यथा-शुक्ल ध्यान का प्रथम लक्ष्ण अव्यथा है, व्यथा का अभाव है। अर्थात् शुक्ल ध्यानी को व्यथा नहीं होती। प्राणी की समस्त व्यथाओं, वेदनाओं, दुःखों का कारण देह, वस्तु, व्यक्ति आदि पर-पदार्थों में अपनत्व भाव व तादात्म्य है। जिस प्रकार आग लोहे के साथ अपनत्व व तादात्म्य को प्राप्त करती है तो वह भी लोहे के साथ ही पीटी जाती है। इसी प्रकार प्राणी भी देह आदि के साथ ममत्व बुद्धि रखने से उन पर होने वाली प्रक्रिया से व्यथित होता है। पृथक्त्व भाव से देह आदि पर-पदार्थों से ममत्व बुद्धि हट जाती है, तादात्म्य मिट जाता है, जिससे उन पर होने वाली क्रियाएँ-घटनाएँ प्राणी को व्यथित नहीं करती हैं। अव्यथा के स्थान पर सूत्रों में कहीं-कहीं अवस्थित शब्द आता है, जिसका अर्थ है स्थिर रहना, चलायमान न होना। यह अव्यथा का ही दूसरा रूप है, क्योंकि चलायमान होना ही क्षोभ है और क्षोभ ही व्यथा है, अतः अव्यथा और अवस्थित समान अर्थ के द्योतक हैं। चलायमान वही व्यक्ति होता है जो निमित्तों से प्रभावित होता है। निमित्तों से प्रभावित वह व्यक्ति नहीं होता है जिसने निमित्तों से पृथक्त्व स्थापित कर लिया है, अतः पृथक्त्व भाव से आत्मा में अवस्थित लक्षण की अभिव्यक्ति होती है। 126 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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