Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 125
________________ जितने दुःखों का अनुभव किया है, उनसे अति भयानक और अनुपम दुःख नरक के होते हैं, यह सोचकर निर्ममत्व का साधक तथा सूत्र के रहस्य को पा लेने वाला मुनि अपने कर्मों को क्षीण करने के लिए उग्र कायोत्सर्ग करे । जह करगओ निकितइ दारुं इंतो पुणोवि वच्चंतो । इअ कतंति सुविहिया काउस्सग्गेण कम्माई || -आवश्यक भाष्य, गाथा 237 जिस प्रकार इधर-उधर आती-जाती करवत काठ को चीर डालती है, उसी प्रकार सुविहित मुनि कायोत्सर्ग के द्वारा कर्मों को काट डालते हैं । 124 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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