Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 124
________________ 2. मतिजाड्यशुद्धि-जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता का नाश । 3. सुख-दुःख-तितिक्षा-सुख-दुःख को सहने की शक्ति का विकास। 4. एकाग्रचित्त से शुभध्यान करने के अवसर का लाभ। अचिरोववन्नगाणं मुच्छिअअव्वत्तमत्तसुत्ताणं। ओहाडिअमव्वत्तं च होइ पाएण चित्तं ति ।। नवजात, मूर्च्छित, अव्यक्त, मत्त और सुप्त इनका चित्त प्रायः स्थगित और अव्यक्त होता है। इन अवस्थाओं में ध्यान (व कायोत्सर्ग) नहीं होता। उस्सासं न निरंभइ आभिग्गहिओवि किमु अ चिट्ठाउ। सज्जमरणं निरोहे सुहमस्सासं तु जयणाए। शिष्य ने पूछा- अभिभव कायोत्सर्ग करनेवाला भी सम्पूर्ण रूप से श्वास का निरोध नहीं करता है तो फिर चेष्टापूर्वक कायोत्सर्ग करनेवाला उसका निरोध क्यों करेगा? आचार्य ने कहा- श्वास के निरोध से मृत्यु हो जाती है, अतः कायोत्सर्ग में यतनापूर्वक सूक्ष्म श्वसोच्छ्वास लेना चाहिए। वासीचंदण कप्पो जो मरणे जीविए य समसण्णे। देहे य अपडिबद्धो काउसग्ग हवइ तस्स। जो मुनि वसूले (बी) से काटनेवाले या चन्दन का लेप करने वाले पर समता रखता है, जीवन और मरण में समवृत्ति होता है तथा देह के प्रति अनासक्त होता है, उसी के कायोत्सर्ग होता है। तिविहाणुवसग्गाणं दिव्वाणं माणुसाण तिरियाणं। सम्ममहियसणाए काउसग्गो हवइ सुद्धो॥ देव, मनुष्य और तिर्यश्च सम्बन्धी उपसर्गों को जो समभाव से सहन करता है, उसके विशुद्ध कायोत्सर्ग होता है। अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवुत्ति एव कयबुद्धी। दुक्खपरिकिलेसकरं छिदं ममत्तं सरीराओ। जाबइया किर दुक्खा संसारे जे मए समणुभूया। इत्तो दुव्विसहतरा नरएसु अणोवमा दुक्खा ।। तम्हा उ निम्ममेण मुणिणा उवलद्धसुत्तसारेणं। काउस्सग्गो उग्गो कम्मक्खयट्ठाय कायव्वो।। 'शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है'- इस प्रकार की बुद्धि का निर्माण कर तुम दुःख और क्लेशकारी शरीर के ममत्व का छेदन करो। संसार में मैंने कायोत्सर्ग-सूत्र 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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