Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 129
________________ यह सर्वविदित है कि तप से कर्मों की निर्जरा होती है। तपों में सर्वोत्कृष्ट तप कायोत्सर्ग है, अतः कायोत्सर्ग से सर्वकर्मों का क्षय हो जाता है। जिससे जीव के सर्वदुःखों का अन्त हो जाता है तथा शुद्ध, बुद्ध व मुक्त हो जाता है; जैसाकि उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नीसवें अध्ययन में कहा है तवेणं भन्ते! जीवे किं जणयइ? तवेणं वोदाणं जणयइ ।।28।। वोदाणं भन्ते! जीवे किं जणयइ? वोदाणं अकिरियं जणयइ, अकिरियाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाएइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ।।29॥ प्रश्न : भगवन् ! तप से जीव क्या प्राप्त करता है? उत्तर : तप से जीव व्यवदान को प्राप्त करता है। प्रश्न : भगवन्! व्यवदान से जीव क्या प्राप्त करता है? उत्तर : व्यवदान से जीव अक्रियता प्राप्त करता है। (अक्रियता ही कायोत्सर्प, है)। अक्रिया से युक्त होने के पश्चात् साधक सिद्ध हो जाता है, बुद्ध हो जाता है, परिनिर्वाण (परम शक्ति) को प्राप्त होता है एवं सर्वदुःखों का अन्त कर देता है। पूर्व में 'कायोत्सर्ग का फल' प्रकरण में वर्णन कर आए हैं कि कायोत्सर्ग से परिनिर्वाण व परिकल्याण होता है। कायोत्सर्ग में कषाय का व्युत्सर्ग होने से ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक व्याधियों से मुक्ति मिलती है। शारीरिक व्युत्सर्ग से शरीर व्याधियों से पीड़ित नहीं होता है। अभिप्राय यह है कि कायोत्सर्ग से आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक आदि समस्त दुःखों का निवारण होता है। यह निर्वाण प्राप्ति की सरलतम साधना है। 128 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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