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असम्मोह - मोहित न होना ही असम्मोह है । यह शुक्ल ध्यान का दूसरा लक्षण है जिसका अभिप्राय है शुक्ल ध्यानी सम्मोहित नहीं होता है। मूर्च्छित होना, ममत्व करना, दूसरों के प्रभाव से प्रभावित होना, दूसरों के निर्देशों में आबद्ध हो जाना, ऋद्धि-सिद्धियों के चमत्कारों से चमत्कृत होना सम्मोह के ही रूप हैं ।
मनोविज्ञान का यह नियम है कि वही व्यक्ति सम्मोहित होता है जो वस्तु, व्यक्ति आदि पर - पदार्थों को महत्त्व देता है, उन्हें मूल्य प्रदान करता है और उन्हें शक्ति-सम्पन्न मान उनसे अनुग्रह की आकांक्षा रखता है, उन्हें आत्मसात् करता है, परन्तु शुक्ल ध्यानी इन सब पदार्थों से अपने में पृथक्त्व का बोध व अनुभव कर लेता है । उसके लिए वस्तु, व्यक्ति आदि समस्त पर- -पदार्थों का कोई अर्थ व मूल्य नहीं रहता है तथा साधना के फलस्वरूप प्राप्त अलौकिक लब्धियों, ऋद्धियों, सिद्धियों या चमत्कारों को भी निस्सार समझता है । इसलिये वह इन सबसे व किसी से भी सम्मोहित व प्रभावित नहीं होता है ।
विवेक5- मूढ़ता या जड़ता न रहकर सजगता रहना ही विवेक है। जड़ता जड़ पदार्थों में अपनत्व भाव से आती है । तन, धन आदि जड़ पदार्थों से अपनत्व भाव हटकर पृथक्त्व भाव का आविर्भाव ही विवेक है। कहा भी है- देहविविक्तं प्रेक्षते आत्मानं तथा च सर्वसंयोगान् विवेकः अर्थात् देह और सर्व-संयोगों से आत्मा को नीर-क्षीर के समान पृथक् समझना ही विवेक है। पृथक्त्व भाव से अनात्म जड़ पदार्थों में अपनत्व नहीं करता है, इससे जड़ता, मूढ़ता या प्रमाद मिट जाते हैं और सतत सजगता या विवेक बना रहता है ।
व्युत्सर्ग-निःसङ्गतयादेहोपधीनां त्यागो व्युत्सर्ग : अर्थात् देह और उपधि के संग का निःसंकोच त्याग व्युत्सर्ग है। देह, धन, धाम आदि सर्व पदार्थों में अपनत्व भाव ही उनके संग या सम्बन्ध का कारण है। यह संग या सम्बन्ध ही बन्ध का कारण है। पृथक्त्व भाव से स्वतः सम्बन्ध विच्छेद होता है । सम्बन्ध-विच्छेद होना ही निःसंगता है। निःसंगता ही त्याग या व्युत्सर्ग है । वस्तु को त्याग दें परन्तु उससे सम्बन्ध न त्यागें तो वह त्याग नहीं है। वस्तु रहे, परन्तु उससे सम्बन्ध त्याग दें तो वस्तु रहने पर भी उससे निःसंगता होने से वह त्याग है, अतः देह के रहते हुए भी देह से निःसंग - पृथक् रहना त्याग है। पृथक्त्व भाव से स्वतः उपधि के प्रति निःसंगता आती है अर्थात् शुक्ल ध्यान में त्याग या व्युत्सर्गता स्वतः स्फुटित होती है ।
उपर्युक्त शुक्ल ध्यान के चार लक्षणों में व्युत्सर्ग प्रधान है; कारण कि शरीर, संसार, कर्म व कषाय का व्युत्सर्ग होने पर ही साधक सर्वव्यथाओं ( व्याधियों), सम्मोह और अविवेक से मुक्त होता है।
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उपसंहार 127
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