Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 126
________________ उपसंहार भगवती सूत्र, शतक 25, उद्देश्क 7 के अनुसार कायोत्सर्ग-व्युत्सर्ग उसे कहा है जिस साधना का उद्देश्य समुदाय (गण), शरीर, सामग्री (उपधि) के आश्रय का त्याग एवं कषाय, संसार व कर्म का व्युत्सर्ग करना हो। व्युत्सर्ग से आशय है अपनत्व, आश्रय, सम्बन्ध, संग का त्याग करना। सामग्री, शरीर, संसार, कर्म पौद्गलिक, नश्वर हैं, विनाशी हैं, जड़ हैं, पर हैं। पर में अपनत्व होना अज्ञान व मिथ्यात्व है। पर का आश्रय लेना पराधीनता में आबद्ध होना है एवं स्वाधीनता से विमुख व वंचित होना है। पर से सम्बन्ध जोड़ना ही बन्धन है। विनाशी का संग करना अविनाशी से विमुख होना है। अज्ञान, मिथ्यात्व, पराधीनता, बन्धन, विनाशित्व किसी को भी इष्ट नहीं हैं। ये सब अनिष्टता के सूचक हैं। इन अनिष्टों से मुक्त होना ही कायोत्सर्ग का उद्देश्य व लक्ष्य है। इस उद्देश्य की पूर्ति इनके व्युत्सर्ग से ही सम्भव है। यद्यपि साधक पर शरीर, संसार व सामग्री का सदुपयोग सर्वहितकारी प्रवृत्ति में करने का दायित्व है, परन्तु इनके आश्रय से अपने लक्ष्य की प्राप्ति होगी, यह मानना ही मूल भूल है। इस भूल के रहते देहाभिमान का अन्त अर्थात् कायोत्सर्ग कदापि सम्भव नहीं है, अतः इनके रहते हुए ही इनके आश्रय का त्याग करना सभी साधकों को लिए अनिवार्य है। इनके आश्रय का त्याग करना ही इनसे सम्बन्ध-विच्छेद होना, इनसे असंग होना, इनसे अतीत होना है, यह ही व्युत्सर्ग है जो कायोत्सर्ग (देहाभिमान रहित होने) से ही सम्भव है। इस दृष्टि से व्युत्सर्ग और कायोत्सर्ग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अतः जहाँ कायोत्सर्ग है वहाँ व्युत्सर्ग है और जहाँ व्युत्सर्ग है वहाँ कायोत्सर्ग है। कोई भी प्रवृत्ति, क्रिया शरीर (काया) आदि पर के आश्रय के बिना सम्भव नहीं है। काया का आश्रय रहते कायोत्सर्ग सम्भव नहीं है, अतः कायोत्सर्ग के लिए शरीर, वचन व मन की प्रवृत्ति व क्रिया का निरोध करना आवश्यक है जैसाकि आवश्यक सूत्र में कायोत्सर्ग के पाठ में कहा है-'ठाणेणं, मोणेणं झाणेणं अप्पाणं कोसिरामि', अर्थात् मैं शरीर से स्थिर (आसन में) रहँगा, वचन से मौन रखूगा एवं मन से एकाग्र रहँगा (चिन्तन नहीं करूँगा), इस प्रकार अपनत्व (ममत्व) को विस्मृत (त्याग) करूँगा। उपसंहार 125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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