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जाता है तथा सत्ता में स्थित पाप प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग का अपवर्तन रूप क्षय (निर्जरा) होता है । अतः समस्त साधनाओं से होने वाली आत्मविशुद्धि से शुभास्रव - शुभानुबन्ध होता है और अशुभ (पाप) प्रकृतियों की संवर व निर्जरा होती है। साधक के लिए पाप प्रकृतियों का संवर व इनकी निर्जरा ही इष्ट है, जब आत्म-विशुद्धि से पाप प्रकृतियों का संवर व निर्जरा होती है तब पुण्य प्रकृतियों का आस्रव व अनुबन्ध स्वतः ही होता है ।
पुण्यास्रव का निरोध व पुण्य कर्मों के अनुभाग के अनुबन्ध का क्षय व निर्जरा किसी भी साधक के लिए अपेक्षित नहीं है और न किसी भी साधना से सम्भव ही है । प्रत्येक साधना से पुण्यास्रव व पुण्यानुबन्ध में वृद्धि ही होती है । इसलिये पुण्य के आश्रव के निरोध को संवर में और पुण्य कर्मों के अनुभाग बन्ध के क्षय को निर्जरा में ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि पुण्यकर्म का संवर और अनुभाग की निर्जरा संयम, तप, त्याग आदि साधना से सम्भव नहीं है । यही तथ्य उपर्युक्त गाथा 95 से प्रकट होता है । गाथा 93-94 में तो कहा है कि धर्मध्यान - शुक्ल ध्यान से शुभास्रव होता है और इसकी अगली गाथा में यह कह दिया गया कि आश्रव द्वार संसार के कारण हैं इसलिये धर्म ध्यान व शुक्ल ध्यान से नहीं होते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि आगम में आस्रव द्वार उन्हीं को कहा है जो संसार वृद्धि के हेतु हैं। शुभास्रव (पुण्यास्रव) संसार वृद्धि का हेतु नहीं है अपितु संसार क्षय का सूचक है, इसलिये इसके निरोध को संवर के किसी भी भेद में स्थान नहीं दिया है, अतः पुण्य के आस्रव तथा बन्ध को हेय व संसार का हेतु मानना आगम व कर्मसिद्धान्त के विपरीत है । साधना के क्षेत्र में केवल पाप के आश्रव के निरोध को संवर में और पापकर्मों के क्षय को ही निर्जरा में ग्रहण किया है।
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कायोत्सर्ग का फल 99
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