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प्रकारान्तर से कहें तो स्व में सन्तुष्ट होना है, आत्मतृप्त होना है। आत्मतृप्त व स्व में सन्तुष्ट निज-स्वरूप में स्थित होने पर कुछ पाना, करना व जानना शेष नहीं रहता है, फिर चित्त का कुछ भी कार्य शेष नहीं रहता है, जिससे चित्त शान्त हो जाता है, चंचलतारहित हो जाता है। चित्त चिन्मय हो जाता है। फिर जड़ता, आलस्य व अकर्मण्यता शेष नहीं रहती है। यह स्थिति ध्यान के कायोत्सर्ग में परिणत होने पर होती है। कायोत्सर्ग से साधक शरीर और संसार से परे होकर निर्वाण अवस्था की अनुभूति करता है। तात्पर्य यह है कि कायोत्सर्ग से चेतना का शोधन होता है। चेतना के शोधन से चित्त का शोधन स्वतः हो जाता है।
106 कायोत्सर्ग
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