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न सहयोग करना चाहिए, अपितु उस व्यर्थ चिन्तन से असहयोग करना चाहिए । इतना ही नहीं, किसी अन्य चिन्तन से चिन्तन को दबा देना भी उसके नाश में हेतु नहीं है । यह नियम है कि जो न करने पर भी स्वतः प्रकट (उदय) होता है, उसका प्रभाव अंकित नहीं होता है और न उससे हानि व अहित होता है।
श्रमरहित होने पर विश्राम स्वतः प्राप्त होता है । वह सदा बना रहता है। उसके लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। जो सदैव रहता है, वह अविनाशी होता है, वह जीवन है। श्रम में शक्ति का व्यय होता है । विश्राम काल में ही आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति है जो दोषों का त्याग करने व लक्ष्य की प्राप्ति में हेतु
होती है ।
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कायोत्सर्ग में व्यर्थ चिन्तन और उसका निवारण 109
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