Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 113
________________ बिना किसी प्रयत्न व प्रयास के स्वाभाविक, स्वतः आने-जाने वाले श्वास पर चित्त को एकाग्र करने को बौद्ध दर्शन में आनापानसति और पातंजल योग में प्राणायाम कहा है। इस में बल व प्रयासपूर्वक किए गए रेचक, पूरक व कुम्भक का स्थान नहीं है। कारण कि बल, श्रम व प्रयासपूर्वक किए गए रेचक, पूरक व कुम्भक में कर्तृत्व भाव रहता है तथा इससे हानि होने का भी भय रहता है, जैसाकि जैनाचार्य हेमचन्द्र ने योग-शास्त्र के छठे प्रकाश में कहा है तन्नाप्नोति मनः स्वास्थ्यं प्राणायामैः कदर्थितम्। प्राणास्यामने पीडा तस्यां स्याच्चित्त-विप्लवः।।4।। पूरणे कुम्भने चैव रेचने च परिश्रमः। चित्त-संक्लेश-करणान्मुक्तेः प्रत्यूह कारणम्।।5।। अर्थात् प्राणायाम द्वारा पीड़ित मन स्वस्थ नहीं हो सकता; क्योंकि प्राण का अवरोध करने से शरीर में पीड़ा उत्पन्न होती है और शरीर में पीड़ा होने से मन में विप्लव (अस्थिरता) उत्पन्न होता है। पूरक, कुम्भक और रेचक करने में परिश्रम करना पड़ता है। परिश्रम करने से मन में संक्लेश (विक्षोभ) उत्पन्न होता है। मन की संक्लेशयुत स्थिति मोक्ष में बाधक होती है। तात्पर्य यह है कि परिश्रम करने में शरीर आदि पर का आश्रय लेना पड़ता है व क्रिया करनी होती है जो क्षोभ उत्पन्न करती है। पराश्रय तथा क्षोभ रहते हुए स्वरूप में स्थित होना सम्भव नहीं है। उपर्युक्त तथ्य को योगी गोरखनाथ ने भी अमनस्क योग ग्रन्थ में कहा है अभ्यस्तैः किमुदीर्घ कालममलै व्याधि प्रदैर्दुष्करैः। प्राणायाम शतैरनेक करणैदुःखात्मकैर्दुर्जयैः ।।42।। यस्मिन्नभ्युदिते विनश्यतिबली वायुः तत्क्षणात्। प्राप्त्यैत्सहजं स्वभाव निशं सेवध्वमेकं गुरुम्॥43॥ -अमनस्क योग उत्तरार्द्ध अनेक व्याधियाँ उत्पन्न करने वाले, बड़ी कठिनाई से करने योग्य, दुःख रूप, दुर्जय तथा अनेक साधनों से सम्पन्न होने वाले सैकड़ों प्राणायामों का दीर्घकाल तक अभ्यास करने से क्या लाभ? अर्थात् कुछ भी लाभ नहीं है। जिसके उदित होने पर बलवान वायु स्वयं तत्क्षण विनष्ट हो जाती है; उसी सहज स्वभावभूत अमनस्कता (कायोत्सर्ग) साधना की प्राप्ति के लिए सदा एकमात्र गुरु की सेवा करो। 112 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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