Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 112
________________ प्रवृत्ति व क्रिया अपने इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के विषयसुखों के सम्पादन के लिए की जाती है, वह भोग कही जाती है और जो प्रयास विषयसुखों के त्याग के लिए किया जाता है अर्थात् भोगों को त्यागने के लिए कृत यम, नियम, प्रत्याहार का अनुपालन योग है। योगयुक्त जीवन ही वास्तविक जीवन है। इसी में चिर शान्ति, निराकुल सुख, निर्भयता, स्वाधीनता, निश्चितता, अमरत्व आदि दिव्य विभूतियों की उलपब्धि होती है जबकि भोग के साथ अशान्ति, आकुलता, पराधीनता, चिन्ता आदि लगे रहते हैं, अतः भोग को योग मानना धोखा है, भ्रान्ति है, योग से वंचित रहना है। ऐहिक (लौकिक) फल के लिए किया गया ध्यान आर्त ध्यान अथवा रौद्र ध्यान है, अतः इनका त्यागकर साधक को धर्म-ध्यान तथा शुक्ल ध्यान की उपासना करनी चाहिए। इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि धर्म-ध्यान, शुक्ल ध्यान से स्वस्थता आदि लौकिक फल की प्राप्ति नहीं होती है। धर्मध्यान, शुक्ल ध्यान से शारीरिक व मानसिक स्वस्थता, सामर्थ्य, बुद्धि संवर्द्धन आदि लौकिक उपलब्धियाँ आनुषंगिक फल के रूप में स्वतः प्राप्त होती हैं, जैसे गेहूँ के साथ भूसा स्वतः प्राप्त होता है, परन्तु ध्यान व कायोत्सर्ग का वास्तविक फल यह नहीं है अपितु राग, द्वेष, मोहरहित वीतराग होना व निर्वाण प्राप्त करना है। __ कर्ता व भोक्ता भाव अर्थात् जो क्रिया या प्रयत्न सांसारिक फल पाने की इच्छा से की जाती है उसमें भी चित्त की एकाग्रता होती है, परन्तु वह भोग है, आर्त ध्यान है। आर्त ध्यान त्याज्य है, क्योंकि इससे समता, शान्ति, स्वाधीनता भंग होती है। कर्ता और भोक्ता भाव त्यागकर ज्ञाता-द्रष्टा होने पर साधक के अपने आन्तरिक जीवन में संवेदनाओं के रूप में जो कर्मों का उदय होता है वह सामने आता है। उससे असंग होना अर्थात् मन, वचन, काया से कुछ भी प्रवृत्ति नहीं करना कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग का फल देहाभिमान से रहित होना है। देहाभिमान नहीं रहने से देह से सम्बन्धित संसार और शरीर एवं इनके सम्बन्ध से उत्पन्न हुए विषय, कषाय आदि का व्युत्सर्ग हो जाता है, इनसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, असंगता हो जाती है। देह से असंग होना देहातीत होना है, संसार या लोक से अंसग होना लोकातीत होना है, अलौकिक साम्राज्य में प्रवेश करना है, फिर राग, द्वेष, कामना, ममता, नीरसता का उदय नहीं रहता है-जिससे शान्ति, स्वाधीनता एवं अहंशून्यता की अनुभूति होती है। शान्ति से अक्षय सुख, स्वाधीनता से अखण्ड सुख का अनुभव होता है तथा अहंशून्य होने से स्वतः निजस्वरूप का अनन्त रस प्रकट होता है। कायोत्सर्ग और आसन-प्राणायाम 111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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