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कायोत्सर्ग और शिथिलीकरण
वर्तमान में ध्यान व योग के केन्द्रों में शिथिलीकरण कराया जाता है और उस शिथिलीकरण को कुछ जैन धर्मावलम्बी कायोत्सर्ग कहते हैं, परन्तु शिथिलीकरण कायोत्सर्ग नहीं है। कारण कि यह शिथिलीकरण ध्यान-शिक्षक द्वारा मनोविज्ञान की निर्देशन पद्धति से या आत्म-सम्मोहन प्रक्रिया से कराया जाता है, यथा-शान्त होकर लेट जाओ। पैरों की पगथलियों को ढीला छोड़ दो। इसी प्रकार पैरों के फाबे, पिण्डलियों, जाँघों, पेडू, पेट, छाती, हाथों के पूँचों, हाथ, भुजा, गर्दन-गला, सिर आदि शरीर के प्रत्येक अंग को ढीला छोड़ने का निर्देश दिया जाता है तथा साधक को यह भी निर्देश दिया जाता है कि यह विचार करो कि शरीर का प्रत्येक अंग शिथिल हो रहा है। इस प्रकार शिक्षक द्वारा दिए गए निर्देशन से अथवा स्वयं के द्वारा आत्म-सम्मोहन से शरीर शिथिल होता है यह शिथिलीकरण शवासन ही है। इस आसन से मन तनावरहित होता है, इससे शान्ति का अनुभव होता है। यह अर्द्धमूर्च्छित तथा अर्द्धनिद्रित अवस्था होती है। इसमें शरीर और मन अपनी क्रिया करना बन्द कर देते हैं जिससे शरीर और मन द्वारा की गई या होने वाली क्रिया तथा माँसपेशियों के तनाव के द्वारा जो शक्ति का ह्रास व क्षय होता है, इनके रुक जाने से शक्ति का संचय होता है। यह शक्ति रोग-प्रतिरोधक प्रक्रिया को तीव्र करती है व शरीर में स्फूर्ति जाग्रत करती है। रोग प्रतिरोधक प्रक्रिया के सक्रिय व तीव्र होने से मधुमेह, हृदय-रोग, अल्सर (उदर रोग), रक्तचाप आदि रोगों की तीव्रता में कमी आती है, चित्त के शान्त होने से हारमोन्स उत्पन्न करने वाली ग्रन्थियाँ भी सन्तुलित होती हैं, जिससे स्वास्थ्य में सुधार होता है।
शिथिलीकरण से होने वाला स्वास्थ्य-सुधार, अन्य चिकित्साओं से होने वाली हानियों से बचाव तथा रोगों की वेदना की तीव्रता घटने का लाभ होता हैइस प्रकार शिथिलीकरण से रोगों का निवारण होता है। शिथिलीकरण की प्रक्रिया से किसी प्रकार की हानि नहीं होती है, जबकि इन रोगों के निवारण के लिए जो दवाइयाँ दी जाती हैं, उनसे तनाव नहीं मिटता है, जो लाभ होता है, वह टिकता नहीं है व अत्यल्प होता है क्योंकि दवा से रोग घटता है, तनाव कम होता है परन्तु रोग के कारण के नहीं मिटने से रोग का उन्मूलन नहीं होता है तथा दवाओं
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