Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 108
________________ कायोत्सर्ग में व्यर्थ चिन्तन और उसका निवारण लक्ष्यविहीन चर्चा, चिन्तन, चाह, चर्या आदि समस्त क्रियाएँ व्यर्थ हैं अर्थात् प्राप्त सामग्री, साधन, सामर्थ्य और समय का दुरुपयोग करना है, जिसका जीवन में कोई स्थान नहीं है। मानव मात्र साधक है। साधक का सर्वप्रथम कार्य लक्ष्य का निर्धारण करना है। लक्ष्य उसे नहीं कहते जिसके प्राप्त करने के पश्चात् कुछ प्राप्त करना शेष रह जाय और जिसे प्राप्त न कर सके उसे भी लक्ष्य नहीं कह सकते। जो अपरिवर्तनशील है, जिसका विनाश कभी नहीं हो सकता, वह ही लक्ष्य है। लक्ष्य सभी का एक ही होता है और वह है अविनाशित्व, ध्रुवत्व व परमानन्द को प्राप्त करना। __ अविनाशी की प्राप्ति विनाशी से नहीं हो सकती। अतः विनाशी की चर्चा, चिन्तन, चाह करना, उसका आश्रय लेना व्यर्थ है। व्यर्थ चिन्तन दो प्रकार का है। एक है विनाशी सुख की प्राप्ति के लिए चिन्तन करना। इस चिन्तन में फलासक्ति (भोक्ता भाव) और करने का राग (कर्तृत्व भाव) रहता है। यह भोक्तृत्व-कर्तृत्व भाव ही समस्त बन्धनों, दोषों व दुःखों व दुष्कर्मों का कारण है। अतः साधक के लिए यह व्यर्थ चिन्तन सर्वथा त्याज्य है। दूसरा व्यर्थ चिन्तन है-जब साधक विश्राम काल (प्रवृत्तिरहित कायोत्सर्ग अवस्था) में होता है तब न चाहने पर भी स्वतः चिन्तन उत्पन्न होता है। इसका कारण है पूर्व में, भूतकाल में किए गए व भोगे हुए का प्रभाव अथवा जो भविष्य में करना चाहते हैं उन कामनाओं का प्रभाव। जैन दर्शन व कर्म-सिद्धान्त की भाषा में कहें तो पूर्व में बँधे कर्मों का उदय है। यह उदय विस्रसा, नैसर्गिक नियम से स्वतः प्रकट होता है, नष्ट व निर्जरित होने के लिए। कर्म उदय में किसी का अहित नहीं है, अपितु हित ही है। यदि पूर्वबद्ध कर्म उदय आकर निर्जरित (नष्ट) नहीं होते तो भयंकर जड़ता आ जाती, अतः स्वतः उदय होकर नष्ट होने वाले व्यर्थ चिन्तन को बलपूर्वक व किसी सार्थक चिन्तन से दबाने से वह मिटता नहीं है, अपितु कुछ काल के लिए दब जाता है। फिर पुनः प्रकट हो जाता है। इस प्रकार साधक सार्थक चिन्तन करता रहता है और व्यर्थ चिन्तन उत्पन्न होता रहता है। यह करने और होने का द्वन्द्व तभी नाश होता है जब व्यर्थ चिन्तन का नाश हो । व्यर्थ चिन्तन का नाश तभी होता है जब होने वाले चिन्तन को निकलने दिया कायोत्सर्ग में व्यर्थ चिन्तन और उसका निवारण 107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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