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कायोत्सर्ग और चित्त शुद्धि
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जिनभद्र क्षमाश्रमण द्वारा विरचित 'झाणज्झयणं ध्यानाध्ययन' अति प्राचीन मौलिक ध्यान ग्रन्थ है। इसमें ध्यान की परिभाषा करते हुए कहा है
जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चल तय चित्तं । तं होज्जाभावणा अणुपेहा वा अहव चिंता ॥ 2 ॥
अर्थात् जो स्थिर अध्यवसान - एकाग्रता को प्राप्त मन है, वह ध्यान है तथा जो चंचल (अस्थिर) चित्त है वह भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता है। ध्यान की यह ही परिभाषा पतञ्जलिकृत योग- शास्त्र में कही है। यथा-तत्र प्रत्ययैकतानताध्यानम् ।।2।। विभूतिपाद अर्थात् वृत्ति का एकतार चलना - एकाग्र होना ध्यान है । इसे ऐसे कहें कि चित्त की एक ही वृत्ति का प्रवाह निरन्तर चलना, बीच में किसी भी दूसरी वृत्ति का न उठना 'ध्यान' है । चित्त की वृत्ति दो प्रकार की होती है-अशुभ और शुभ । विषय-भोगों में व उनकी प्राप्ति में तल्लीन वृत्ति अशुभ है, इसे 'पातञ्जल योग' में क्लिष्ट वृत्ति कहा है। इसके विपरीत विषय-विकारों के त्याग की वृत्ति शुभ है, इसे पातञ्जल योग में अक्लिष्ट वृत्ति कहा है। अशुभ व क्लिष्ट वृत्ति की एकाग्रता को जैन दर्शन में आर्त- रौद्र ध्यान कहा है जिसका अर्थ है क्लेशकारी वृत्ति । विषय-विकारयुत इस वृत्ति को साधक के लिए त्याज्य कहा है ।
शुभ व अक्लिष्ट वृत्ति है - सत् चर्चा, सत् चिन्तन, दया, करुणा, सेवा, परोपकार आदि दिव्य गुणों के प्रति चित्त की एकाग्रता । शुभ वृत्ति को त्याज्य नहीं कहा है, क्योंकि यह सत्य व स्वरूप में प्रतिष्ठित होने में सहायक होती है । विषयों व विकारों की नाशक है, अतः शुभ-अक्लिष्ट वृत्ति त्याज्य नहीं है अपितु ध्यान का 'करण' साधन है ।
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'चित्त' करण है, कर्ता नहीं । यह नियम है कि करण या साधन स्वयं में भला-बुरा नहीं होता है, वह कर्ता के भावों को क्रियान्वित करता है । कर्ता के शुद्ध - अशुद्ध भाव ही करण के माध्यम में प्रकट होते हैं। मन, वचन, शरीर आदि करणों की क्रियाओं की शुभता - अशुभता के आधार कर्ता के भाव होते हैं । कर्ता अपने शुद्ध - अशुद्ध भावों के अनुसार करण का सदुपयोग-दुरुपयोग करता है । 104 कायोत्सर्ग
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