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के मार्ग हैं। उनका पथ तप है और उस तप का प्रधान अंग ध्यान है। अतः ध्यान मोक्ष का हेतु है ।।95-96 ।।
श्री जिनभद्र क्षमाश्रमण ने ध्यान शतक में गाथा 97 से 105 में शुभ ध्यान के फल को अनेक दृष्टान्तों से स्पष्ट करते हुए कहा है जिस प्रकार जल वस्त्रगत मैल को धोकर उसे स्वच्छ कर देता है उसी प्रकार ध्यान जीव से संलग्न कर्मरूप मैल को धोकर उसे शुद्ध कर देने वाला है। जिस प्रकार अग्नि लोहे के कलंक (जंग आदि) को दूर कर देती है उसी प्रकार ध्यान जीव से सम्बद्ध कर्मरूप कलंक को पृथक् कर देने वाला है तथा जिस प्रकार सूर्य पृथ्वी के कीचड़ को सुखा देता है उसी प्रकार ध्यान जीव से संलग्न कर्मरूप कीचड़ को सुखा देने वाला है।।97-98।।
जिस प्रकार योगों (औषधियों) के द्वारा शरीर का नियम से ताप (दुःख), शोषण (दुर्बलता) और भेद (विदारण) दूर होता है उसी प्रकार उस ध्यान से ध्याता के कर्म का भी नियम से ताप, शोषण और भेद दूर होता है ।।99॥
जिस प्रकार रोग को शमन कर देने वाली विशोषण (लंघन) अथवा रेचन क्रिया से रोग के कारणभूत मल को बाहर निकाल देने से रोग शान्त हो जाता है, उसी प्रकार ध्यान और उपवास आदि के विधान (विधियाँ) से कर्मरूप रोग को शान्त कर दिया जाता है ।। 100 ।।
जिस प्रकार वायु से सहित अग्नि दीर्घकाल से संचित ईंधन को शीघ्र जला देती है उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्नि अपरिमित–अनेक पूर्वभवों में संचितकर्मरूप ईंधन को क्षण-भर में भस्म कर देती है।।101।।
जिस प्रकार मेघों के समूह वायु से ताड़ित होकर क्षण-भर में विलय को प्राप्त हो जाते हैं उसी प्रकार ध्यानरूप वायु से विघटित होकर कर्मरूपी मेघ भी विलीन हो जाते हैं-क्षण-भर में नष्ट हो जाते हैं।।102॥
जिसका चित्त ध्यान में संलग्न है वह क्रोधादि कषायों से उत्पन्न होने वाले ईर्ष्या, विषाद और शोक आदि मानसिक दुःखों से पीड़ित नहीं होता है। मानसिक दुःखों के समान शारीरिक दुःखों से भी वह बाधा को प्राप्त नहीं होता है।।103 ।।
जिसका चित्त ध्यान के द्वारा अतिशय स्थिरता को प्राप्त कर चुका है, वह कर्मनिर्जरा की अपेक्षा रखता हुआ शीत व उष्ण आदि बहुत प्रकार के शारीरिक दुःखों से भी बाधा को प्राप्त नहीं होता है, वह उन्हें निराकुलतापूर्वक सहता है।।104॥
कायोत्सर्ग का फल 97
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