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इस प्रकार सब गुणों के आधारभूत तथा दृष्ट और अदृष्ट सुख के साधक को उस अतिशय प्रशस्त ध्यान का सदा श्रद्धान करना चाहिये, उसे जानना चाहिये और उसका चिन्तन व अनुभव करना चाहिये ।। 105 ।।
स्पष्टीकरण-ध्यान के अतिप्राचीन एवं प्रामाणिक ध्यान शतक ग्रन्थ का जैन धर्म की दोनों सम्प्रदायों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस ग्रन्थ की उपर्युक्त गाथाओं से निम्नांकित तथ्य प्रकट होते हैं।
ऊपर गाथा 93-94 में श्रेष्ठध्यान-धर्म-ध्यान का प्रतिपादन करते हुए धर्म-ध्यान से 1. पुण्य का आश्रव, 2. पाप का संवर, 3. निर्जरा, 4. बंध और 5. देवसुख होना कहा है और गाथा 96 में इसे मोक्ष का हेतु भी कहा है।
__यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि आश्रव और संवर, दोनों परस्पर में विरोधी हैं तथा निर्जरा और बन्ध, ये दोनों भी परस्पर में विरोधी हैं। इन विरोधियों का धर्म-ध्यान व शुक्ल ध्यान में एक साथ होना कहा गया है, यह कैसे सम्भव है?
समाधान-यहाँ आस्रव व बन्ध में शुभासव और शुभानुबन्ध को ही लिया गया है, अशुभ (पाप) आस्रव और अशुभ (पाप) अनुबन्ध को नहीं लिया गया है। इसी प्रकार संवर और निर्जरा में पाप के संवर और पापकर्मों की निर्जरा को ही लिया गया है, शुभ कर्मों के संवर व निर्जरा को नहीं लिया गया है। कारण कि धर्म-ध्यान आदि समस्त साधनाओं से आत्म-विशुद्धि होती है, आत्मा पवित्र होती है जिससे पुण्य का आस्रव तथा पुण्य का अनुबन्ध होता है। जिस समय जिस पुण्यकर्म प्रकृति का आस्रव व अनुबन्ध होता है उस समय उसकी विरोधिनी पापकर्म प्रकृति के आस्रव का निरोध-संवर हो जाता है तथा पाप प्रकृतियों की निर्जरा (क्षय) होती है। पुण्य का आस्रव चार अघाती कर्मों का ही होता है । इनमें से आयुकर्म को छोड़कर शेष वेदनीय, गोत्र व नाम, कर्म की प्रकृतियों में शुभ अथवा अशुभ दोनों प्रकार की प्रकृतियों में से किसी एक का आस्रव व बन्ध निरन्तर होता रहता है। अतः जब सातावेदनीय, उच्च गोत्र, शुभ गति, शुभ
आनुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, वज्रऋषभनाराच संघयण, समचतुरस्त्र संस्थान, शुभ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, शुभविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ, स्थिर, सुभग, आदेय और यशकीर्ति–इन पुण्य प्रकृतियों में से जिनका आस्रव व अनुबन्ध होता है तब इनकी विरोधिनी पापकर्म प्रकृतियाँ असातावेदनीय, नीच गोत्र, अशुभ गति व आनुपूर्वी अशुभ संघयण-संस्थान, वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, अशुभ विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अशुभ अस्थिर, दुर्भग, अनादेय और अयशकीर्ति के आस्रव का निरोध-संवर हो जाता है, बन्ध रुक
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