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कर्मों का उन्मूलन एवं आत्यंतिक क्षय आभ्यन्तर तप से ही होता है। कारण कि बाह्य तप से तो चेतना की केवल बाहर की
ओर हो रही गति का निरोध होता है, अन्तर की ओर गति नहीं होती और विषय-भोगों में विद्यमान आन्तरिक सुखासक्ति नहीं मिटती। आभ्यन्तर तप से स्व की ओर गति होती है, जिससे अलौकिक रसानुभूति का आनन्द अनुभव होता है एवं भोगों के सुख में आकुलता का दुःख अनुभव होता है जिससे भोगों की सुखासक्ति स्वतः क्षीण होती जाती है, स्व की ओर गति होती जाती है, जिसकी पूर्णता होने पर निज-स्वरूप से अभिन्नता हो जाती है। शरीर, संसार, कषाय और कर्म के आकर्षण, आसक्ति, राग का पूर्ण क्षीण व क्षय हो जाता है फिर इनका पूर्व में अंकित प्रभाव शेष नहीं रहता है, इन सब से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। सम्बन्धविच्छेद हो जाने से इनका बंध टूट जाता है। इनसे अतीत अवस्था का अनुभव हो जाता है अर्थात् व्युत्सर्ग हो जाता है। अभिप्राय यह कि प्रतिसंलीनता बाह्य तप की चरम स्थिति व पूर्णता प्राप्त करने की द्योतक है और इससे नवीन पापकर्मों का बंध होना बंद हो जाता है और व्युत्सर्ग आभ्यन्तर तप की पूर्णता का द्योतक है जिससे सब प्रकार के बंधनों का आत्यन्तिक क्षय हो जाता है।
विषय-सुखों के भोग से ही समस्त दोषों (पापों) की उत्पत्ति होती है। दोषों (पापों) से दुःखों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार विषय-सुखों का भोग ही समस्त दोषों, दुःखों एवं बंधनों का कारण है। बाह्य तप से विषय-भोगों की प्रवृत्ति का निरोध होता है
और आभ्यन्तर तप से विषय-भोगों की वृत्ति (वासना) का क्षय (नाश) होता है। इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर, इन दोनों प्रकार के तपों से विषय-भोगों की प्रवृत्ति तथा वृत्ति का अंत हो जाता है। समस्त दोषों, दुःखों तथा बंधनों का सदा के लिए नाश हो जाता है। ध्यान व व्युत्सर्ग में दोनों प्रकार के तप समाहित हैं। अतः ध्यान व व्युत्सर्ग से ही समस्त दोष, दुःख एवं बंधन से मुक्ति की अनुभूति होती है। प्रतिसंलीनता मुक्ति के समीप पहुँचाती है और कायोत्सर्ग मुक्ति से अभिन्न करता है।
आशय यह कि प्रतिसंलीनता तप से विषय-भोग, शरीर,
संसार व कर्म (प्रवृत्ति) से विमुखता होती है, नवीन रागोत्पत्ति का 94 कायोत्सर्ग
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