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अमनस्कता- उन्मनीभाव का उदय होने पर योगी को अपने शरीर के विषय में अनुभूति होने लगती है कि मानो शरीर बिखर गया है, भस्म हो चुका है, उड़ गया है, विलीन हो गया है और वह है ही नहीं । अतः जब योगी शरीर को असतवत् जान लेता है और उसकी दृष्टि में शरीर का अस्तित्व ही नहीं रह जाये, तब समझना चाहिए कि इसमें अमनस्कता उत्पन्न हो गई है।
समदैरिन्द्रिय- भुजंगै रहिते विमनस्क -नव - सुधाकुण्डे । मनोऽनुभवति योगी
परामृतास्वादमसमानम् ॥
मनोन्मत्त इन्द्रिय रूपी भुजंगों से छुटकारा पाया हुआ योगी विमनस्क (उन्मनी - भाव) रूपी नवीन सुधा के कुण्ड में मग्न होकर अनुपम और उत्कृष्ट तत्त्वामृत का आस्वादन करता है ।
रेचक - 5- पूरक- कुम्भक करणाभ्यास-क्रमं विनाऽपि खलु । स्वयमेव नश्यति मरुद्विमनस्के सत्य- यत्नेन ॥
अमनस्कता की प्राप्ति हो जाने पर रेचक, पूरक, कुम्भक और आसनों के अभ्यास के बिना स्वतः ही मारुत् (पवन) का नाश हो जाता है ।
चिरमाहितप्रयत्नैरपि धर्त्तु यो हि शक्यते नैव । सत्यमनस्के तिष्ठति स समीरस्तत्क्षणादेव ॥
दीर्घकाल तक प्रयत्न करने पर भी जिस वायु का धारण करना अशक्य होता है, अमनस्कता उत्पन्न होने पर वही वायु (मन का प्रवाह) तत्काल एक जगह स्थिर हो जाता है ।
भवति खलु शून्यभावः स्वप्ने विषयग्रहश्च जागरणे । द्वितयमतीत्यानन्दमयमवस्थितं
एतद्
तत्त्वम् ॥
स्वप्न दशा में शून्यता व्याप्त रहती है, विषयों का ग्रहण नहीं होता है और जाग्रत अवस्था में इन्द्रियों के विषयों का ग्रहण होता है, किन्तु आनन्दमय तत्त्व इन दोनों अवस्थाओं से परे लय में स्थित रहता है ।
जीवों को उपदेश
कर्माण्यपि दुःखकृते निष्कर्मत्वं सुखाय विदितं तु । न ततः प्रयतेत् कथं निष्कर्मत्वे सुलभ - मोक्षे ॥
कर्म दुःख के लिए हैं अर्थात् दुःख का कारण हैं और निष्कर्मता सुख के लिए है। यदि तुमने इस तत्त्व को जान लिया है, तो तुम सरलता से मोक्ष प्रदान करने वाले निष्कर्मत्व को प्राप्त करके समस्त क्रियाओं से रहित बनने के लिए क्यों नहीं प्रयत्न करते ?
50 कायोत्सर्ग
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