Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 68
________________ कायोत्सर्ग : समभाव की साधना 1 सुख जीव का स्वभाव है। सच्चे सुख का अनुभव निज स्वभाव में स्थित होने में ही है । मन, वचन और तन की किसी क्रिया के करते हुए बहिर्मुखी अवस्था रहती है, जिससे स्वभाव में स्थित होना सम्भव नहीं है । इसीलिए साधना में तन की क्रिया का निरोध करने के लिए स्थिर - निश्चल आसन में बैठना होता है । वचन की क्रिया के निरोध के लिए मौन का विधान है। मन की क्रिया के निरोध के लिए मन को अन्तर्मुखी बना स्व में स्थित करना है । अन्य उपायों से किया गया मन का लय तात्कालिक लाभ पहुँचाता है। जैसे प्राणायाम से श्वास पर ध्यान लगाने से भी मन एकाग्र होता है परन्तु जैसे ही प्राणायाम बन्द कर दिया जाता है तो मन बहिर्गामी होकर विषय-वासनाओं में भटकने लगता है। इसी प्रकार किसी आकृति - विशेष के चिन्तन, नाम-स्मरण, मन्त्र, जाप, त्राटक आदि करने से भी मन एकाग्र हो जाता है, उस समय वासनाएँ दब जाती हैं, परन्तु उनका नाश नहीं होता है । अतः पुनः विषय-विकारों का उदय हो जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि मन को एकाग्र करने की क्रियाओं का उद्देश्य वासनाओं से विरक्त व देहातीत होना नहीं होता है। अपितु शरीर और मन को स्वस्थ व सशक्त बनाकर इसे अधिकाधिक विषय-सुखों का भोग कराना होता है । प्रतिदिन गहरी निद्रा में यही कार्य प्रकृति से स्वतः होता है। गहरी निद्रा में मन-वचन-तन, इन तीनों का लय हो जाता है जिससे सुख की अनुभूति होती है, रोगों का निवारण होता है, शक्ति का संचय व वृद्धि होती है, परन्तु इस अवस्था में जड़ता की स्थिति रहती है । अतः इससे आध्यात्मिक विकास नहीं होता है । कारण कि इसका लक्ष्य विषय-वासनाओं से विरक्त होना, देह और मन से परे की अवस्था का अनुभव करना नहीं है, प्रत्युत देह और मन को पुष्ट करना है, जबकि योग व ध्यान-साधना का उद्देश्य देह और मन से अतीत हो निज स्वरूप के सच्चे सुख का अनुभव करना एवं सब दुःखों से मुक्त होना है । सब दुःखों से मुक्त होने का उपाय समभाव में रहना है, अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों में समता से रहना, इनके प्रति हर्ष शोक या राग-द्वेष नहीं करना है। अथवा यों कहें कि आधि-व्याधि-उपधि से प्रभावित नहीं होना है, इसे ही समाधि कहा जाता है । समाधि की अनुभूति तब ही सम्भव है जब साधक अपने को देह से भिन्न कायोत्सर्ग : समभाव की साधना Jain Education International For Private & Personal Use Only 67 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132