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त्यागना अर्थात् जो भोग भोगते आए हैं, उनके राग, आसक्ति (Attachment) को तोड़ना, घटाना क्षय करना, इसी को निर्जरा (तप) कहा है। तप के बारह भेद हैं : 1. अनशन 2. उणोदरी 3. वृत्तिप्रत्याख्यान 4. रसपरित्याग 5. कायक्लेश 6. प्रतिसंलीनता 7. प्रायश्चित्त 8. विनय 9. वैयावृत्य 10. स्वाध्याय 11. ध्यान और 12. व्युत्सर्ग । इन बारह भेदों में प्रथम छः भेद बाह्य तप के और अंतिम छः भेद आभ्यन्तर तप के हैं।
बाह्य तप-बाह्य तप का कार्य है-बहिर्मुख वृत्ति को रोकना अर्थात् इन्द्रियों और मन को भोगों की ओर जाने से रोकना। इस तप का प्रारम्भ अनशन से होता है। अनशन तप केवल रसनेन्द्रिय के भोग्य विषय भोजन का त्याग करना ही नहीं है, प्रत्युत पाँचों इन्द्रियों और मन के भोग-विषयों का त्याग करना भी है। अपने त्याग की निर्बलता के कारण जिन इन्द्रिय व मन के भोगों का त्याग न कर सके उनकी यथासम्भव भोग में कमी करना उणोदरी तप है। जिन विषयों का भोग किया जा रहा है उनमें अपनी वृत्तियों-प्रवृत्तियों को रोकना वृत्ति प्रत्याख्यान तप है। उन भोग्य विषयों में रस न लेना-सुखासक्ति रहित रहना-रस-परित्याग तप है। प्रकृति प्रदत्त आए हुए सर्दी, गर्मी, रोग आदि काया पर प्रकट होने वाले क्लेशों (दुःखों) को समभाव से सहन करना, उनको दूर करने-सुख भोगने का उपाय न करना-अर्थात् हीटर-कूलर आदि का प्रयोग न करना कायक्लेश तप है। बहिर्मुखी वृत्तियों की बाह्य विषयों की संलीनता से विमुख होना प्रतिसंलीनता तप है। यह प्रतिसंलीनता तप अंतर्मुखी होने के प्रवेश द्वार पर पहुँचा देता है। इसके पश्चात् अंतर्मुखी होकर अंतर्यात्रा करने पर आभ्यंतर तप प्रारम्भ होता है। इसी दृष्टि से आगे तप के भेदों का विशेष वर्णन किया जा रहा है :
अनशन (उपवास)-उपवास का अर्थ है कि समीप में वास करना अर्थात् पाँचों इन्द्रियों और मन का बहिर्मुखी होकर विषय-भोगों की ओर जाने से निजस्वरूप की जो दूरी हो गई है उसे दूर करने के लिए इन्द्रिय, मन आदि विषयों से विमुख होना ही निज-स्वरूप के समीप पहुँचना है-निवास करना है-उपवास है। आशय यह है कि इन्द्रियों व मन की भोग प्रवृत्तियाँ व क्रियाएँ जब बाहर की
ओर गति करती हैं तब निज-स्वरूप (आत्मा) से दूरी उत्पन्न करती है उन प्रवृत्तियों को रोकना, निरोध करना ही दूरी को दूर करना है अर्थात् निज-स्वरूप के निकट पहुँचने का प्रयास ही उपवास है।
उणोदरी-शरीर के निर्वाह एवं दैनिकचर्या के लिए जो प्रवृत्तियाँ करनी पड़ें, उन्हें भी स्वरूप के सामीप्य के लिए विकथा व व्यर्थ निष्प्रयोजन विषय प्रवृत्ति न करना उणोदरी तप है।
तप में कायोत्सर्ग का महत्त्व 89
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