Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 79
________________ 'प्रज्ञा' या 'सम्यक् ज्ञान' कहा जाता है। इस यथार्थ, सत्य ज्ञान के प्रभाव से इन्द्रिय-बुद्धिजनित ज्ञान भी सम्यक् होता जाता है। ध्यान-साधक दर्शन या अनुभव के स्तर पर प्रत्यक्ष देखता है कि केवल बाहरी स्थूल जगत् ही नहीं बदल रहा है, बल्कि हमारे शरीर की त्वचा, रक्त, मांस, हड्डियों में भी प्रतिक्षण परिवर्तन, बदलाव, उत्पाद-व्यय हो रहा है। यह परिवर्तन सूक्ष्म लोक (जगत्) में और भी अधिक तेजी से व शीघ्रता से हो रहा है। शरीर के उपरिभाग से भीतरी भाग में, शरीर में उत्पन्न संवेदनाओं व विद्युत चुम्बकीय लहरों में, मन में, अवचेतन मन में क्रमशः सैकड़ों-हजारों गुना अधिक से अधिक द्रुतगति से परिवर्तन (उत्पाद-व्यय) हो रहा है। यहाँ तक कि लोक के सूक्ष्म स्तर पर तो यह उत्पाद-व्यय एक पल में करोड़ों-अरबों से भी अधिक बार प्रत्यक्ष अनुभव होता है। इस प्रकार ध्यान-साधना से जैसे-जैसे दर्शन के आवरण क्षीण होते जाते हैं, वैसे-वैसे संसार की अनित्यता का प्रत्यक्ष दर्शन (साक्षात्कार) होता जाता है। ऐसे अनित्य संसार में आत्मबुद्धि रखना, उसे अपना मानना, उससे रक्षण व शरण की आशा करना अज्ञान है। संसार में शरणभूत कुछ भी नहीं है। प्रकृति की उत्पाद-व्यय प्रक्रिया से उत्पन्न रोग, जरा, मृत्यु या वियोग से कोई किसी को नहीं बचा सकता है। इस प्रकार ध्यान-साधक संयोग में वियोग, जीवन में मृत्यु, आशा में निराशा का दर्शन करने लगता है। इससे उसमें तन, मन, धन, जन आदि समस्त परिवर्तनशील अनित्य वस्तुओं के प्रति ममत्व व अहंत्व हटकर अनात्मभाव की जागृति होती है। वह अपनी अनुभूति के आधार पर यह भी जानता है कि रोग, बुढ़ापा, इन्द्रियों की शक्ति-क्षीणता, मृत्यु, अभाव, वेदना, पीड़ा आदि तो दुःख हैं ही, परन्तु संसार में जिसे सुख कहा जाता है वह भी दुःख-रूप ही है। कारण कि वह सुख राग व मोहजनित होता है। राग चित्त में असंख्य लहरें या तूफान उठने का रूप है। यह राग का तूफान समता के सागर की शान्ति को भंग कर अशान्ति, आकुलता, तनाव, आतुरता व जड़ता उत्पन्न करता है व मूर्छित बनाता है। इस प्रकार वह भोगों के सुख में दुःख का दर्शन करने लगता है। वह देखता है कि संसार में सर्वत्र, सर्वस्थितियों एवं परिस्थितियों में दुःख ही दुःख है। इस प्रकार इस अनित्य, अशरण, दुःखद संसार से सम्बन्ध स्थापित करना, इससे सुख भोगना अज्ञान है, भंयकर भूल है। ध्यान-साधक यह भी देखता है कि संसार की उत्पत्ति-विनाश स्वरूप प्रत्येक घटना कारण और कार्य के नियमानुसार घट रही है। कोई भी घटना अप्रत्याशित, आकस्मिक या अनहोनी नहीं घटती है। जो कुछ भी हो रहा है वह 78 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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