Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 80
________________ कारण के अनुसार कार्य होता है। कर्म सिद्धान्त का यह नियम है कि जो जैसा करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। अर्थात् जो भी सुखद-दुःखद स्थिति प्राप्त होती है वह अपने ही कर्म का फल है। अतः उसमें न तो शिकायत या शोक की गुंजाइश है और न हर्ष को अवकाश है। उस घटना या परिस्थिति को भला-बुरा मानना या कोसना व उसके प्रति राग-द्वेष करना अज्ञान है। इस प्रकार सूक्ष्म दर्शन या साक्षात्कार की प्रगति से साधक की प्रज्ञा बढ़ती जाती है। उसे लोक के सूक्ष्म तथा गहन नियमों का ज्ञान अधिक से अधिक होता जाता है। उसे ग्रंथि-बंध, कर्म-विपाक, जन्म-मरण, संवर, निर्जरा, विमोक्ष आदि का प्रत्यक्ष व स्पष्ट ज्ञान होने लगता है। जो जितना सूक्ष्म होता है वह उतना ही विभु व शक्तिशाली होता है। इस नियम के अनुसार सूक्ष्म तत्त्वों के प्रत्यक्षीकरण से सीमित व विकृत ज्ञान विशद् एवं शुद्ध होता जाता है। अंत में ज्ञान पर से सर्वआवरण हटकर व क्षय होकर असीम, अनन्त, निर्मल 'केवलज्ञान' प्रकट हो जाता है। मोहनीय कर्म का क्षय ध्यान के अभ्यास से जैसे-जैसे समता व सूक्ष्म अनुभव की शक्ति बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे राग-द्वेष-मोह आदि से उठने वाली लहरों व संवेदनाओं का प्रत्यक्ष दर्शन (अनुभव) होने लगता है। साधक यह भी देखने लगता है कि रागद्वेष से नवीन ग्रंथियों का निर्माण होता है। ये ग्रंथियाँ समय पाकर उदय में आकर फल देती हैं - इनसे तन-मन, सुख-दुःख का सर्जन होता है। जन्म-मरण व सुखद-दुःखद संवेदनाओं के प्रति प्रतिक्रिया करने से राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, जिनसे नवीन ग्रंथियों का निर्माण होता है। फिर सुखद-दुःखद संवेदनाओं की उत्पत्ति होती रहती है और इस प्रकार उत्पत्ति-विनाश का, जन्म-मरण का यह क्रम बार-बार चलने लगता है। इस प्रकार भव-भ्रमण अनंत काल से चल रहा है। साधक यह भी अनुभव करने लगता है कि लहर द्वेष की उठे या राग की उठे अथवा अन्य किसी भी प्रकार की उठे, उससे समताजनित शान्ति, सुख, स्वाधीनता, संतुष्टि लोप हो जाती है और अशान्ति, क्षुब्धता व आकुलता, आतुरता आदि दुःखों का उदय हो जाता है। इस प्रकार जहाँ वह साधक पहले राग, द्वेष, मोह, हिंसा, झूठ आदि दोषों में सुख का आस्वादन करता था वहाँ अब इनमें दुःख का अनुभव करने लगता है। साधक इस परिणाम पर पहुँचता है कि दुःख या भव-चक्र-भेदन का एक ही उपाय है कि नवीन ग्रंथियों का निर्माण न हो और पुरानी ग्रंथियों का भेदन हो जाये, उदीरणा होकर उनकी निर्जरा हो जाये। कायोत्सर्ग : कर्म-क्षय की साधना 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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