Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 81
________________ नवीन ग्रंथियों का निर्माण, पुराने कर्म के फल भोगते समय राग-द्वेष रूपी प्रतिक्रिया करने से होता है। अतः नवीन ग्रंथियों के निर्माण को रोकने का एक ही उपाय है कि पुराने कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न सुखद संवेदनाओं के प्रति राग न करे, दुःखद संवेदनाओं के प्रति द्वेष न करे अर्थात् समता (द्रष्टाभाव) में रहे। इस . प्रकार समता में रहने से नवीन ग्रंथियों (कर्मों) का निर्माण रुक जाता है। पुरानी ग्रंथियों (कर्मों) के नाश का उपाय है ग्रंथियों का भेदन करना । तन, मन, धन, जन आदि सबसे आसक्ति (राग-द्वेष) छोड़ना; यह स्थूल ग्रंथि-भेदन है। सूक्ष्म शरीर, चित्त, अवचेतन मन आदि के स्तर पर प्रकट व उत्पन्न होने वाली संवेदनाओं (ग्रंथियों) का धुन-धुनकर विभाजन करना, टुकड़े-टुकड़े करना, यह सूक्ष्म ग्रंथियों का भेदन है। इस ग्रंथि-भेदन से पुराने कर्मों के समुदाय की तीव्रता के साथ उदीरणा होकर निर्जरा होती है। - इस ग्रंथि-भेदन में ध्यान (चित्त की एकाग्रता), स्वाध्याय (स्व का अध्ययन, स्वानुभव), कायोत्सर्ग से सूक्ष्मतर स्तर पर तन-मन का उत्सर्ग करना, अहंभाव का विसर्जन व व्युत्सर्ग करना होता है। इससे राग-द्वेष व मोह पर विजय प्राप्त होने लगती है अर्थात् राग, द्वेष, माया-मोह के प्रवाह का प्रभाव घटता जाता है। यह विजय साधक के उत्साह, सुख, समता, शान्ति, स्वाधीनता को बढ़ाती है जिससे उसमें राग, द्वेष पर अधिक विजय पाने का पुरुषार्थ जगता है। इस प्रकार धर्मचक्र से वह धीरे-धीरे समता की चरम अवस्था में पहुंचकर राग, द्वेष, मोह आदि विकारों पर पूर्ण विजय पाकर वीतराग, वीतद्वेष हो जाता है। उसके मोह का पूर्ण क्षय हो जाता है, उसका कर्तृत्व व भोक्तृत्व समाप्त हो जाता है। अन्तराय कर्म का क्षय जिससे जीव को दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य-इन पाँच स्वाभाविक उपलब्धियों गुणों में विघ्न व बाधा उत्पन्न हो, वह अंतराय कर्म है। जीव का दान-गुण उदारता व प्रीति के सुख की उपलब्धि का सूचक है। लाभगुण निर्लोभता से आविर्भूत संतोष संपत्ति की उपलब्धि का व्यक्तक है। भोगगुण विषय-भोग के सुखों के त्याग से अर्थात् निर्ममता से प्राप्त स्वाधीनता के अखण्ड, पूर्ण सुख के भोग की उपलब्धि का द्योतक है। उपभोग-गुण विषयसुखों के उपभोग के त्याग से अर्थात् निरहंकारता से आविर्भूत स्वाभाविक आत्मीयता व प्रियता के नित-नूतन, अनवरत, अनंत सुख के उपभोग की उपलब्धि का एवं वीर्य-गुण कर्तृत्वभाव रहित होने से आविर्भूत दोषों के 80 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132