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विनाशक सामर्थ्य गुण की उपलब्धि का सूचक है। इन पाँचों गुणों की उपलब्धि निर्दोषता से प्रकट स्वभाव की अभिव्यक्तक है। समस्त स्वाभाविक गुणों में बाधा उत्पन्न होती है विभाव से। विभाव से जीवन स्वभाव से विमुख हो जाता है। यह विमुखता ही अंतराय कर्म है।
विभाव की उत्पत्ति का मूल कारण है विषय-भोगों के सुख का प्रलोभन । विषय-सुख के इच्छुक जीव में स्वार्थपरता का दोष उत्पन्न होता है जो उदारतागुण का अपहरण कर दानान्तराय उत्पन्न कर देता है। उसमें इन्द्रिय-विषयों के भोग-उपभोग की भोग्य वस्तुओं को प्राप्त व संग्रह करने की इच्छा उत्पन्न होती है जो निज स्वभाव के भोग-उपभोग के सुख का अपहरण कर भोगान्तरायउपभोगान्तराय कर्म को उत्पन्न कर देती है। भोगी जीव अपने सामर्थ्य का उपयोग व उपभोग विषय-भोगों एवं उनकी भोग्य सामग्री की प्राप्ति में करता है, उसका यह भोक्तृत्व व कर्तृत्व भाव दोषों के त्यागने के सामर्थ्य का अपहरण कर वीर्यान्तराय कर्म को उत्पन्न कर देता है। प्रकारान्तर से कहें तो विषय-भोगों की इच्छा व उनका भोग आत्मा को बहिर्मुखी बनाता है जिससे आत्मा निज-स्वभाव में रमण रूप भोग-उपभोग के सुख से विमुख व वंचित हो जाती है। निजस्वरूप के अक्षय-अखण्ड-अनन्त सुख से वंचित होना ही अंतराय कर्म का उदय है। अतः जितनी-जितनी विषय-भोगों की, सुख की इच्छा व दासता घटती जाती है उतना ही उतना अंतराय कर्म का क्षयोपशम होता जाता है। विषय-सुख के पूर्ण त्याग होते ही अंतराय कर्म का क्षय हो जाता है।
सांसारिक पदार्थों व भोगों की इच्छा उत्पन्न होते ही चित्त चंचल व चलायमान हो जाता है, जिससे चित्त की शान्ति, स्थिरता व समता भंग हो जाती है। किसी भी जीव की सभी इच्छाएँ पूर्ण नहीं होती हैं। एक इच्छा की पूर्ति होते ही उसकी पूर्ति का सुख कुछ ही क्षणों में विलीन हो जाता है, नीरसता उत्पन्न हो जाती है। इस नीरसता से ऊबकर सुख पाने के लिए नई इच्छा उत्पन्न होती है। इस प्रकार इच्छाओं की अपूर्तिजनित अभाव सदा बना रहता है। अभाव का अनुभव होना ही अंतराय का सूचक है। विषय-भोग के सुख में व भोगों की इच्छा में आकुलता रहती है। ध्यान-साधना से साधक अंतर्मुखी हो निर्विकल्पता के, निराकुलता के सुख का अनुभव करता है। निराकुलता के व शान्ति के सुख की अनुभूति से विषय-भोगों के आकुलतायुक्त सुख में दुःख का अनुभव होता है। यह अनुभव जितना-जितना गहरा होता जाता है उतना-उतना विषय-सुखों में असह्य दुःख का अनुभव होता है और अंत में विषय-सुख का प्रलोभन व दासता सदा के लिये मिट जाती है, जिससे अंतराय कर्म का क्षय होकर अनन्त दान,
कायोत्सर्ग : कर्म-क्षय की साधना 81
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