________________
उपर्युक्त चार घाती कर्मों के अतिरिक्त नाम, गोत्र, आयु, वेदनीय ये चार अघाती कर्म और हैं। ये कर्म शरीर, इन्द्रिय आदि भौतिक या बाहरी पदार्थों से संबंधित हैं। यह नियम है कि भीतरी स्थिति के अनुरूप ही बाहरी स्थितियों एवं परिस्थितियों का निर्माण होता है या यों कहें कि चेतना की सूक्ष्म शक्तियों व गुणों के न्यूनाधिकता के अनुरूप ही प्रकृति भौतिक पदार्थों, शरीर, इन्द्रिय आदि की संरचना करती है, यही नामकर्म है। नामकर्म से उत्पन्न शरीर के टिकने की अवधि आयुकर्म है। उच्च-नीच अर्थात् दीनता व अभिमान (मद) का भाव होना गोत्रकर्म है और शरीर व चित्त आदि के माध्यम से होने वाली सुखद-दुःखद संवेदनाएँ वेदनीय कर्म है। इन चारों अघाती कर्मों की पाप-प्रकृतियों की उत्पत्ति का कारण भी राग, द्वेष, मोह आदि दोष ही हैं। ये दोष जैसे-जैसे घटते व हटते जाते हैं, आत्मशुद्धि बढ़ती जाती है। पाप-प्रकृतियों का बंध रुकता जाता है।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय-इन चार घाती कर्मों के क्षय होने के पश्चात वेदनीय कर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और आयुकर्म ये चारों अघाती कर्म शेष रह जाते हैं। ये कर्म अघाती होने से जीव के किसी गुण का घात करने में समर्थ नहीं हैं। अतः इनके क्षय करने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी इन कर्मों की शुभ-अशुभ, प्रशस्त-अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं जिन्हें पुण्य-पाप प्रकृतियाँ कहा जाता है। इनमें से पुण्य-प्रकृतियों का क्षय किसी भी साधना से सम्भव नहीं है अपितु साधना से इन पुण्य-प्रकृतियों का अर्जन होता है एवं इनके अनुभाग में वृद्धि होती है। अतः इनके क्षय की आवश्यकता भी नहीं है। शेष रही इनकी अशुभ-अप्रशस्त पाप-प्रकृतियाँ। पाप-प्रवृत्तियों के बंध का अवरोध कषाय की क्षीणता व क्षय से होता है।
क्रोध कषाय (क्रूरता, निर्दयता) के निवारण व क्षयोपशम से सातावेदनीय पुण्य-प्रकृति का; मान कषाय के क्षयोपशम से, मद न करने से, मृदुता से उच्चगोत्र पुण्य-प्रकृति का; माया कषाय के क्षयोपशम से, ऋजुता से शुभ नामकर्म की पुण्य-प्रकृतियों का एवं लोभ कषाय के क्षयोपशम से देव, मनुष्य, आयु, पुण्य-प्रकृति का बंध होता है। कायोत्सर्ग से कषाय क्षय होता है जिससे अघाती कर्मों की पाप-प्रकृतियों के बंध का अवरोध होता है एवं पुण्य-प्रकृतियों का उपार्जन व उदय होता है। जिन साधकों ने कायोत्सर्ग-साधना से चारों कषायों का पूर्ण क्षय कर दिया है। उनके उपर्युक्त समस्त पुण्य-प्रकृतियों का अनुभाग बढ़कर उत्कृष्ट हो जाता है। ये शुभ (पुण्य) कर्म-प्रकृतियाँ आत्मा की शुद्धता की सूचक हैं। अतः इन्हें क्षय करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है।
कायोत्सर्ग : कर्म-क्षय की साधना 83
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org