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के लिए इनका पालन अनिवार्य है। संयम है विषय-भोगों का त्याग करना और तप है पूर्वबद्ध विषय-भोगों के संस्कारों (कमों) को तोड़ना, उनसे अपने को पृथक् अनुभव करना। तप का प्रारम्भ अनशन से होता है और तप का उत्कृष्ट रूप कायोत्सर्ग है। अनशन, उणोदरी आदि बाह्य तप का फल शरीर और इन्द्रिय के भोगों की दासता से व सांसारिक वस्तुओं से मुक्त होना है अर्थात् स्थूल शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करना, असंग-अतीत होना है, बाह्य विकारों पर विजय पाना है। प्रायश्चित्त, विनय-वैयावृत्य आदि आभ्यन्तर तपों से आन्तरिक विकार रागद्वेष, विषय-कषाय का क्षय करना है। सूक्ष्म शरीर से पृथक्त्व का अनुभव करना है। जिससे चित्त आत्म-स्थ, स्व-स्थ, शान्त व निर्विकल्प होता है, इसे ही असंप्रज्ञात समाधि कहा जाता है। इस शान्ति, समाधि, निर्विकल्प स्थिति के पश्चात् अप्रयत्न-अक्रिय होने पर कार्मण (कारण) शरीर से असंगता होती है। यह ही शरीर का स्थिरीकरण, वाणी का मौन एवं चित्त की एकाग्रतानिर्विकल्पता ध्यानस्थ-स्वरूप ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं कायोत्सर्ग है।
कायोत्सर्ग : समभाव की साधना 69
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