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भाव को दूर करना पाप भाव को दूर करना है, अतः विकारों से त्राण ही सच्चा त्राण है । विकार का क्षय ही पापकर्मों का क्षय है यथा
सज्झायसज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे - रयस्स । विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ।। दशवैकालिक, अ. 7, गाथा 63
अर्थात् जैसे अग्नि से तपाये जाने से चाँदी-सोने का मल शुद्ध होता है वैसे ही स्वाध्याय और ध्यान में रत रहने रूप तप से अपापभाव वाले साधक का पूर्वकृत कर्ममल विशुद्ध हो जाता है ।
किसी विषय या वस्तु के अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि उससे सम्बन्ध स्थापित किया जाये। यही बात स्वाध्याय के लिए भी चरितार्थ होती है । स्वाध्याय है-स्व का अध्ययन करना । स्व के अध्ययन के लिए स्व से जुड़ना आवश्यक है । स्व से जुड़ना तभी सम्भव है जब पर का जोड़ (जुड़ना) छोड़ें, पर का सम्बन्ध तोड़ें। पर से जोड़ होने का कारण है, पर से सुख का भोग करना । पर सुख चाहने से पर से सम्बन्ध स्थापित होता है । जिससे पर की चर्चा, पर का चिन्तन, पर की चाह, पर की प्राप्ति की प्रवृत्ति होती है । पर की चर्चा, चिन्तन, चाह पराध्याय है । आगम में पर की चाह व चिन्तन को आर्त ध्यान और पर की चर्चा को विकथा कहा है तथा आर्त ध्यान और विकथा को साधक के लिए त्याज्य कहा है। पर की चाह, चिन्तन व चर्चा रूप पराध्याय के त्याग से स्वतः स्व (आत्म) - चिन्तन और स्व (आत्म) - चर्चा होने लगती है । स्वचिन्तन, स्व - चर्चा अर्थात् आत्म- - चिन्तन और आत्म-चर्चा स्वाध्याय है ।
स्व-चर्चा और स्व-चिन्तन से स्व में स्थिरता रूप ध्यान की सिद्धि होती है । इस दृष्टि से स्व-चर्चा और स्व-चिन्तन रूप स्वाध्याय का साधना के क्षेत्र में बड़ा महत्त्व है । पर जब तक स्व-चर्चा और स्व-चिन्तन रूप स्वाध्याय है, तब तक ध्यान नहीं होता । कारण कि चर्चा में जिह्वा और चिन्तन में मन का आश्रय लेना पड़ता है । जिह्वा और मन भी पर (विनाशी) है। अतः इनका आश्रय पराश्रय है । जहाँ पराश्रय है, वहाँ स्व में स्थित (स्थिर) होना नहीं है, अर्थात् ध्यान नहीं है, किन्तु स्व-चर्चा और स्व-चिन्तन रूप स्वाध्याय ध्यान के सहायक अंग हैं। इसे एक उदाहरण से समझें
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जैसे किसी व्यक्ति को धूम्रपान या मदिरा सेवन से शारीरिक रोग (विकार) उत्पन्न हुआ, वह अस्वस्थ हो गया। उस व्यक्ति के लिए वह रोग (विकार) बुरा है, हेय है, त्याज्य है । उस विकार को दूर करने के लिए औषधि सेवन आवश्यक है । इस दृष्टि से औषधि उपादेय है, औषधि का महत्त्व है, परन्तु जब वह विकार 72 कायोत्सर्ग
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