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द्वारा और (3) जो इन्द्रिय और बुद्धि से अतीत स्वयंसिद्ध निजज्ञान है उसके
द्वारा ।
देह परिवर्तनशील है । यह शिशु अवस्था में छोटी थी, किशोर अवस्था में बड़ी हुई, युवावस्था में पुष्ट हुई, वृद्धावस्था में बाल श्वेत होने लगे व चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ने लगी। इस प्रकार देह में परिवर्तन होते रहने पर भी उस देह में 'मैं' तत्त्व अपरिवर्तनशील रहता है। बचपन से युवा व वृद्ध होने पर किसी के द्वारा पूछा जाय कि तुम कौन हो, तो वह कहेगा कि 'मैं' वही हूँ जिसे पचास वर्ष पूर्व आपने बचपन में छोटा-सा देखा था । मेरे शरीर में परिवर्तन होने से भले ही आप मुझे न पहचान सकें, परन्तु 'मैं' हूँ वही जिसे आपने पहले देखा था । तात्पर्य यह है कि देह बदलती है, परन्तु देह में निवास करने वाला देही नहीं बदलता है । यह देही ही 'मैं' है । देह मरणधर्मा है या परिवर्तनशील है और देही जीवनधर्मा है । यही कारण है कि जब तक यह जीवनधर्मा देही में बसता है तब तक देह भी जीवित कही जाती है। देही के निकल जाने पर देह पिण्ड, मुर्दा या लाश कही जाती है ।
देही जीवनधर्मा है और देह मरणधर्मा है। दोनों के धर्म या गुण भिन्नभिन्न हैं, परस्पर विरोधी हैं, अतः दोनों एक जाति के नहीं हैं, एक नहीं हैं । फिर भी ही भूल से देह के साथ तादात्म्य व अपनेपन का भाव पैदा कर लेता है। इस भूल के परिणामस्वरूप वह अपने को देह रूप मानने लगता है। देह के गौरवर्ण होने पर अपने को गोरा, देह के वृद्ध होने पर अपने को बूढ़ा, देह के रुग्ण होने पर अपने को रोगी मानता है। वस्तुतः देही आत्मा, देह से भिन्न जाति का है, भिन्न है । देह में परिवर्तन होने से उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। देह के हाथ, पैर आदि किसी अंग के कट जाने से देही- आत्मा के 'मैं' में कुछ भी कमी नहीं होती है । देह के काली, गौरी वर्ण की होने से देही काला, गौरा वर्ण का नहीं होता है । देह के वृद्ध, रुग्ण या मरण होने से देही वृद्ध, रुग्ण व मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है । देह का अंग भंग होने से देही (आत्मा) की कोई हानि नहीं होती है, परन्तु अपने को देह मानने की भूल से, अज्ञान से और मिथ्यात्व से वह देह में होनेवाली अवस्थाओं को अपने पर आरोपित कर लेता है और जिस प्रकार लोहे के संग से आग घण से पीटी जाती है उसी प्रकार देह के संग से देही को बुढ़ापा, रोग आदि का दुःख झेलना पड़ता है ।
देह में अहं - बुद्धि होने का फल यह होता है कि देही अपने को सुखीदुःखी अनुभव करने लगता है । वह देह और इन्द्रिय के भोगों से अपने को सुखी और भोगों में व्यवधान या अन्तराय पड़ने से अपने को दुःखी मानता है । उसका
कायोत्सर्ग- व्युत्सर्ग: देहातीत होना 61
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