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शव हो जायेगा यह आशंका निराधार है। सुषुप्ति में इन्द्रिय-मन-बुद्धि निष्क्रिय होने से इनसे मिलनेवाला सुख नहीं रहता है। विषय-सुख का अभाव हो जाता है, परन्तु जाग्रत अवस्था प्राप्त होने पर, सुषुप्ति अवस्था में सुखपूर्वक सोने की अनुभूति की स्मृति विद्यमान रहती है। इससे यह सिद्ध होता है कि सुषुप्ति अवस्था में भी सुख होता है और यह सुख इन्द्रियों के भोग के सुख से भिन्न है, जिसका वर्णन सम्भव नहीं है। इससे यह फलित होता है कि शरीर-संसार-इन्द्रिय
आदि भोग के सुख से भिन्न अलौकिक, अनिर्वचनीय सुख भी होता है। वह सुख शरीर-इन्द्रिय-मन-बुद्धि के निष्क्रिय होने से होता है। अतः जिसे यह सुख होता है वह इन सबसे भिन्न है और उसका अस्तित्व है। यह अस्तित्व शरीर से अतीत होने से मरणरहित है, अमरत्व है। उसका आत्मा, परमात्मा, जीव, ब्रह्म आदि कुछ भी नाम रखा जाय या नामकरण न भी किया जाय, इससे उसके अस्तित्व में कुछ अन्तर नहीं पड़ता है।
उपर्युक्त सब विवेचन सुषुप्ति को आधार बनाकर किया गया है और सुषुप्ति में जड़ता होती है, इससे जिज्ञासा होती है तो क्या चेतनत्व का त्यागकर जड़ता ग्रहण करनी चाहिए? तो कहना होगा कि ऊपर निद्रा को तो उदाहरण, दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसे देश (अंश) से आंशिक रूप में ही लेना चाहिए। यदि साधक जाग्रत अवस्था में भी सुषुप्तिवत् हो जाय अर्थात् दृश्य जगत् (शरीर, संसार आदि) से सम्बन्ध-विच्छेद कर ले, मन, वचन, काया, इन्द्रिय, बुद्धि आदि को अक्रिय-स्थिर कर ले, तो अमरत्व के अलौकिक सुख का अनुभव हो जाता है। जाग्रत में सुषुप्तिवत् होना ही कायोत्सर्ग है।
64 कायोत्सर्ग
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