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कायोत्सर्ग- व्युत्सर्ग: देहातीत होना
देहाभिमान रहित होते ही स्वतः निर्वासना आ जाती है । वासना रहित होते ही मन में निर्विकल्पता, बुद्धि में समता, हृदय में निर्भयता और चित्त में प्रसन्नता स्वतः आजाती है । मन की निर्विकल्पता तथा बुद्धि की समता सब प्रकार के द्वन्द्वों का अन्त करने में समर्थ है । द्वन्द्वों का अन्त होते ही निस्संदेहता तथा प्रेम की प्राप्ति होती है । निस्संदेहता से तत्त्वबोध और प्रेम से नित नूतन अनन्त सुख की उपलब्धि होती है ।
अपने को देह मान लेने से देह से तादात्म्य हो जाता है, देहाभिमान हो जाता है। देहाभिमान होने पर वस्तु, व्यक्ति, अवस्था से सम्बन्ध हो जाता है और प्राणी इनकी दासता में आबद्ध हो जाता है । वस्तुओं की दासता लोभ, व्यक्तियों की दासता मोह, अवस्था की दासता जड़ता उत्पन्न करती है। लोभ, मोह तथा जड़ता में आबद्ध प्राणी परिस्थितियों का दास हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अपने को देह मान लेने अथवा देह को अपना मान लेने से परिस्थितियों की दासता उत्पन्न होती है जो देहभाव को, देह से तद्रूपता को पुष्ट करती है।
यदि देह की नश्वरता, अशुचित्व आदि वास्तविकता को जानकर देहभाव का त्याग कर दिया जाय तो हमारा माना हुआ 'मैं' तथा 'मेरापन ' मिट जाता है। जिसके मिटते ही अपने से भिन्न पदार्थों से माने हुए मैं, मेरेपन तथा तादात्म्य रूप सम्बन्धों का सदा के लिए विच्छेद हो जाता है, तदनन्तर शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि सभी से अपनी भिन्नता का अनुभव हो जाता है। फिर विषयवासना, कषाय व मोह का सदा के लिए अन्त (क्षय) हो जाता है और साधक अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित हो जाता है ।
प्रश्न उत्पन्न होता है कि राग व मोह आदि समस्त दोषों की उत्पत्ति का हेतु क्या है ? तो कहना होगा कि अपने को देह मान लेना, देह से तद्रूप होना, देह को सदैव बनाये रखने की आशा व विश्वास रखना ही राग व मोह की उत्पत्ति का हेतु है । यह निज ज्ञान, श्रुतज्ञान का अनादर है, ज्ञानावरण है । अब विचार यह करना है कि इस स्वतःस्फूर्त निज ज्ञान को कैसे प्राप्त करें ? तो कहना होगा कि जानने के तीन साधन हैं - (1) इन्द्रियों के द्वारा, (2) विवेकयुक्त बुद्धि के
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