Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 49
________________ मत्तो हस्ती यत्नान्निवार्यमाणोऽधिकीभवति यद्वत् । अनिवारितस्तु कामान् लब्ध्वा शाम्यति मनस्तद्वत् ॥ मन जिन-जिन विषयों में प्रवृत्त होता हो, उनसे उसे बलात् रोकना नहीं चाहिए, क्योंकि बलात् रोकने से वह उस ओर और अधिक दौड़ने लगता है और न रोकने से शान्त हो जाता है। जैसे मदोन्मत्त हाथी को रोका जाए तो वह उस ओर अधिक प्रेरित होता है और उसे न रोका जाए तो वह अपने इष्ट विषयों को प्राप्त करके शान्त हो जाता है । यही स्थिति मन की होती है । I मनोविजय की विधि औदासीन्यनिमग्नः प्रयत्नपरिवर्जितः सततमात्मा । भावितपरमानन्दः क्वचिदपि न मनो नियोजयति ।। करणानि नाधितिष्ठत्युपेक्षितं चित्तमात्मना जातु । ग्राह्ये ततो निजनिजे करणान्यपि न प्रवर्तन्ते ॥ नात्मा प्रेरयति मनो न मनः प्रेरयति यर्हि करणानि । उभय-भ्रष्टं तर्हि स्वयमेव विनाशमाप्नोति ॥ उदासीन भाव में निमग्न, सब प्रकार के प्रयत्न से रहित और परमानन्द दशा की भावना करने वाला योगी किसी भी जगह मन को नहीं जोड़ता है। इस प्रकार आत्मा जब मन की उपेक्षा कर देता है, तो वह उपेक्षित मन इन्द्रियों का आश्रय नहीं करता अर्थात् इन्द्रियों में प्रेरणा उत्पन्न नहीं करता। ऐसी स्थिति में इन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषय में प्रवृत्ति करना छोड़ देती हैं। जब आत्मा मन में प्रेरणा उत्पन्न नहीं करता और मन इन्द्रियों को प्रेरित नहीं करता, तब दोनों तरफ से भग्न बना हुआ मन अपने-आप विनाश को प्राप्त हो जाता है । मनोजय का फल नष्टे मनसि समन्तात्सकले विलयं च सर्वतो याते । निष्कलमुदेति तत्त्वं निर्वात स्थायि दीप इव ॥ जब मन प्रेरक नहीं रहता तो पहले राख से आवृत अग्नि की तरह शान्त हो जाता है और फिर पूर्ण रूप से उसका क्षय हो जाता है अर्थात् चिन्ता, स्मृति आदि उसके सभी व्यापार नष्ट हो जाते हैं। तब वायुविहीन स्थान में स्थापित दीपक जैसे निराबाध प्रकाशमान होता है, उसी प्रकार आत्मा में कर्म-मल से रहित शुद्ध तत्त्व - आत्म-ज्ञान का प्रकाश होता है । 48 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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