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(8) विनय - अहंकार को दूर करना, देह के तादात्म्य को तोड़ना । देह आदि से सम्बन्ध-विच्छेद करना, असंग होना । दोषों का, दुष्प्रवृत्तियों का त्याग
करना ।
(9) वैय्यावृत्य-साधना में आए हुए विघ्नों का निवारण करना । सेवा करना । (10) स्वाध्याय-स्व का अध्ययन करना अर्थात् अपने अंतस् में उत्पन्न हुए राग, द्वेष आदि अपायों (दोषों) को देखना एवं उन दोषों के विपाकस्वरूप उत्पन्न हुई आकुलता व दुःख को समत्वपूर्वक देखना तथा दूर
करना ।
(11) ध्यान - चित्त को एकाग्र करना, स्वस्थ होना अर्थात् स्व में स्थित होना । (12) व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग)) - काया का उत्सर्ग करना, अर्थात् काया से अपने को पृथक् अनुभव करना, देहातीत होना ।
तप के उपर्युक्त 12 भेदों में से प्रथम छः बाह्य तप के भेद आभ्यंतर तप के पोषक हैं, सहयोगी अंग हैं। आभ्यंतर तप के छः भेदों में अन्तिम भेद है। कायोत्सर्ग । यही तप का चरमोत्कर्ष भी है । तप मुक्ति का साधन है। मुक्ति हैदोषों व दुःखों से छुटकारा पाना । 'दुःख' दोषों के परिणाम हैं। समस्त दोष उत्पन्न होते हैं देह के साथ तादात्म्य भाव से, देहाभिमान से । अतः दुःखमुक्ति के लिये देह से तादात्म्य तोड़ना आवश्यक है । दूसरे शब्दों में देहातीत होना आवश्यक है। देह में रहते हुए देहातीत होना ही कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग के लिये ध्यान आवश्यक है। ध्यान के बिना कायोत्सर्ग नहीं हो सकता । अब तक जितने साधक मुक्त हुए हैं, उन सबने ध्यान व कायोत्सर्ग साधना अवश्य की है। ध्यान मुक्ति का द्वार है । ध्यान के बिना मुक्ति में प्रवेश कदापि सम्भव नहीं है ।
जैन दर्शन में चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा है । चित्त की एकाग्रता विषय-भोगों में एवं हिंसा, झूठ, चोरी आदि दुष्प्रवृत्तियों में भी होती है, अतः जैन दर्शन में इन्हें भी ध्यान कहा है, परन्तु यह ध्यान दुर्ध्यान है, अशुभ है । इसलिये इन्हें अशुभ ध्यान कहा है। अशुभ ध्यान दो प्रकार का कहा है1. विषय-भोगों से सम्बन्धित चित्त की एकाग्रता को आर्त ध्यान और 2. हिंसा आदि दुष्प्रवृत्तियों में चित्त की एकाग्रता को रौद्र ध्यान कहा है। आर्त- रौद्र, ये दोनों ध्यान समस्त दोषों की उत्पत्ति करने वाले, दुःखों को बढ़ाने वाले एवं संसार में भ्रमण कराने वाले हैं। ये साधना में बाधक हैं, अत: इन्हें साधक के लिए सर्वथा त्याज्य कहा है । साधना में इनका कोई स्थान नहीं है । इनसे बचने
10 कायोत्सर्ग
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