Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 32
________________ ध्यान और कायोत्सर्ग में एकता व भिन्नता तप या निर्जरा तत्त्व के बारह भेदों में 'ध्यान' ग्यारहवाँ और कायोत्सर्ग बारहवाँ भेद हैं। जैनागमों में जहाँ भी तप का वर्णन आया है, उसमें सर्वत्र ध्यान और कायोत्सर्ग को अलग माना है, परन्तु वर्तमान जैन परम्परा में प्रायः ध्यान और कायोत्सर्ग को एक मान लिया है। प्रतिक्रमण के पाँचवें आवश्यक 'कायोत्सर्ग' को ध्यान का ही रूप दे दिया है। गम्भीरता से विचार करने से ज्ञात होता है कि ध्यान और कायोत्सर्ग में महत्त्वपूर्ण अन्तर है : 'कायोत्सर्ग' तप व निर्जरा तत्त्व का चरमोत्कर्ष है। इसके आगे कुछ भी साधना करना शेष नहीं रहता है जबकि 'ध्यान' के पश्चात् कायोत्सर्ग होना आवश्यक है अर्थात् ध्यान का लय कायोत्सर्ग में होता है। कायोत्सर्ग साधना से साधक देहातीत होता है। देह, इन्द्रियाँ, मन, संसार व समस्त परिवर्तनशील लौकिक अवस्थाएँ एक ही जाति की हैं, अतः देहातीत होने से साधक इन सबसे अतीत अलौकिकता का अनुभव कर लेता है। जबकि ध्यान में अनुप्रेक्षा होने से चित्त (सूक्ष्म देह) का आश्रय रहता है। ध्यान में चित्त किसी एक विषय पर स्थित होता है। कायोत्सर्ग में चित्त अध्यवसाय रहित निर्विकल्प हो जाता है, परन्तु ध्यान में चित्त से सम्बन्ध बना रहता है, ध्यान से चित्त शान्त होता जाता है, विकल्प घटते जाते हैं। इस प्रकार ध्यान से चित्त निर्विकल्प होने पर कायोत्सर्ग होता है। इस दृष्टि से 'ध्यान' कायोत्सर्ग का साधन है और कायोत्सर्ग साध्य है। ध्यान जितना सधता जाता है उतना ही देहाभिमान गलता जाता है, फिर ध्यान कायोत्सर्ग में विलीन (लय) हो जाता है। ध्यान में ध्याता रूप मैं (देहभाव-अहंभाव) विद्यमान रहता है, जिससे देहातीत अनुभूति नहीं होती है जबकि कायोत्सर्ग में मैं का व्युत्सर्ग हो जाता है अर्थात् शरीर, संसार, कर्म, कषाय का व्युत्सर्ग-विसर्जन हो जाता है जिससे देहातीत-लोकातीत स्वरूप का अनुभव हो जाता है। कर्मों की पूर्ण निर्जरा हो जाती है जिससे जीव कर्म-बन्ध रहित अर्थात् मुक्त हो जाता है। ध्यान में, संकल्प या कामना की उत्पत्ति रुक जाने से नवीन कर्मों का बन्ध रुक जाता है और समता भाव से राग-द्वेष व संकल्प-विकल्प घटते जाते ध्यान और कायोत्सर्ग में एकता व भिन्नता 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -

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