Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 45
________________ यह भी कायोत्सर्ग है, परन्तु इसमें अव्यक्त (सत्त्व) रूप में अहंभाव का संस्कार रहता है। जैन दर्शन में इस अवस्था को उपशान्त मोहनीय यथाख्यात चारित्र कहा है। यह यथाख्यात अवस्था भेद-विज्ञान के अनुभव से होती है। पातंजल योग दर्शन में भेद-विज्ञान को विवेक और उसके अनुभव को 'ख्याति' कहा है। विवेक-ख्याति का फल संप्रज्ञात समाधि है। इसमें मैं अप्रयत्न हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं बुद्ध हूँ, इस प्रकार के अहं के ज्ञान का सूक्ष्म संस्कार अव्यक्त रूप में रहता है, जिसका कुछ काल के पश्चात् व्युत्थान (उदय) हो जाता है। इस अवस्था में मैं ज्ञाता हूँ, द्रष्टा हूँ, यह भाव रहता है, परन्तु जब अप्रयत्न अवस्था दृढ़ हो जाती है और स्वभाविक हो जाती है तब वह सदा के लिए हो जाती है। फिर अहंभाव का सदा के लिए विसर्जन हो जाता है। अहं से अचेतन का सम्बन्ध-विच्छेद होने से, असंग हो जाने से अहं 'है' में लीन हो जाता है। फिर साधक शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, संसार आदि से अतीत हो जाता है। उसका इनसे कुछ भी सम्बन्ध शेष नहीं रहता है जिससे कुछ प्राप्य, कर्तव्य, ज्ञेय, दृश्य शेष नहीं रहता है। प्राप्य शेष न रहने से भोक्तृत्व भाव, कर्तव्य शेष न रहने से कर्तृत्व भाव शेष नहीं रहता है। ज्ञेय शेष न रहने से ज्ञाता भाव शेष नहीं रहता है-केवल ज्ञान रह जाता है। देखना शेष न रहने से दृश्य और द्रष्टा शेष नहीं रहता है, केवल दर्शन रहता है। यह असंप्रज्ञात समाधि है। कायोत्सर्ग की चरम स्थिति है। यही कैवल्य है। कायोत्सर्ग और अमनस्कता कैवल्य की विभूति या अनुभूति के लिए कायोत्सर्ग-साधना आवश्यक है। जैनाचार्य हेमचन्द्रसूरि (11-12वीं शती) ने 'योग-शास्त्र' ग्रन्थ में ध्यान से सम्बन्धित ग्यारह प्रकरणों में विवेचन करने के पश्चात् अन्तिम प्रकरण 'द्वादश प्रकाश' में कायोत्सर्ग का अमनस्क (उन्मनी) साधना के रूप में निरूपण किया है। यह कायोत्सर्ग साधक के लिए महत्त्वपूर्ण, उपयोगी होने से संक्षेप में यहाँ देते हैं; यथा श्रुतसिन्धोर्गुरुमुखतो यदधिगतं तदिह दर्शितं सम्यक् । अनुभवसिद्धमिदानी प्रकाश्यते तत्त्वमिदममलम्॥ श्रुत रूपी समुद्र से और गुरु के मुख से योग के विषय में मैंने जो जाना था, यहाँ तक वह सम्यक् प्रकार से दिखलाया है। अब अनुभव से सिद्ध निर्मल तत्त्व को प्रकाशित करूँगा। बाह्यात्मानमपास्य प्रसत्तिभाजान्तरात्मना योगी। सततं परमात्मानं विचिन्तयेत्तन्मयत्वाय ।। 44 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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