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योगी को चाहिए कि वह बहिरात्मभाव का त्याग करके अन्तरात्मा के साथ सामीप्य स्थापित करे और परमात्ममय बनने के लिए निरन्तर परमात्मा का ध्यान
करे ।
बहिरात्मा - अन्तरात्मा
आत्मधिया समुपात्तः कायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा ।
कायादेः समधिष्ठायको भवत्यन्तरात्मा तु |
शरीर आदि बाह्य पदार्थों को आत्म-बुद्धि से ग्रहण करने वाला अर्थात् शरीर, धन, कुटुम्ब, परिवार आदि में अहम् - बुद्धि रखने वाला बहिरात्मा कहलाता है और जो शरीर आदि को आत्मा तो नहीं समझता, किन्तु अपने को उनका अधिष्ठाता समझता है, वह 'अन्तरात्मा' कहलाता है । बहिरात्मा जीव शरीर, इन्द्रिय आदि को ही आत्मा-अपना स्वरूप मानता है, जबकि अन्तरात्मा शरीर और आत्मा को भिन्न समझता हुआ यही मानता है कि मैं शरीर में रहता हूँ, शरीर का संचालक हूँ ।
परमात्मा
चिद्रूपानन्दमयो निःशेषोपाधिवर्जितः शुद्धः । अत्यक्षोऽनन्तगुणः परमात्मा कीर्तितस्तज्ज्ञैः ॥
चिन्मय, आनन्दमय, समग्र उपाधियों से रहित, इन्द्रियों से अगोचर और अनन्त गुणों से युक्त आत्मा परमात्मा कहलाता है ।
सिद्धि प्राप्ति का उपाय
पृथगात्मानं कायात्पृथक् च विद्यात्सदात्मनः कायम् । ज्ञातात्म निश्चये न स्खलेद्योगी ।।
उभयोर्भेद
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शरीर से आत्मा को और आत्मा से शरीर को भिन्न जानना चाहिए। इस प्रकार दोनों के भेद को जानने वाला योगी आत्मस्वरूप को प्रकट करने में स्खलित नहीं होता ।
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अन्तः पिहित - ज्योतिः सन्तुष्यत्यात्मनोऽन्यतो मूढः । तुष्यत्यात्मन्येव हि बहिर्निवृत्तभ्रमो
योगी ॥
जिसकी आत्म-ज्योति कर्मों से आच्छादित हो गई है, वह मूढ़ पुरुष आत्मा से भिन्न बाह्य पदार्थों में सन्तोष पाता है, किन्तु योगी, जो बाह्य पदार्थों सुख की भ्रान्ति से निवृत्त हो चुका है, अपनी आत्मा में ही सन्तोष प्राप्त करता है ।
कायोत्सर्ग और अमनस्क साधना
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