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जिस प्रकार नमक पानी में विलीन होकर समरस हो जाता है उसी प्रकार यदि चित्त आत्मा में विलीन होकर समरस हो जाये तो फिर जीव को समाधि में
और क्या करना है? अर्थात् चित्त का बाह्य विषयों से विमुख हो, आत्म-स्वरूप में लीन होना ही समाधि है, ध्यान है। श्री जिनसेनाचार्य कहते हैं :
योगो ध्यानं समाधिश्च धीरोधः स्वान्तः निग्रहः । अंतः संलीनता चेति तत्पर्यायाः स्मृता बुधेः।।
21-22 आर्ष अर्थ-योग, समाधि, बुद्धि-निरोध, स्वान्तनिग्रह, अन्तःसंलीनता ये ध्यान के पर्यायवाची हैं। योग अर्थात् चित्त का निरोध, समाधि-चित्त की स्थिरता, धी निरोध-बुद्धि से चिन्तनरहित होना, स्वान्तः निग्रह-अपने अन्तःस्थल में स्थिर होना, अन्तः संलीनता अपने अन्तःकरण में संलीन होना ध्यान है अर्थात् मन, चित्त, बुद्धि और अहं का निरोध-निग्रह होना ध्यान है।
तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्ययन में धर्म-ध्यान के भेदों में आए 'विचय' शब्द की व्याख्या करते हुए तत्त्वार्थवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि टीकाओं में 'विचयो विवेको विचारणेत्यनर्थान्तरम्' कहा है अर्थात् विचय, विवेक और विचारणा, ये समानार्थक हैं। चिन्तन करने से ऐसा जान पड़ता है कि प्राचीन काल में विचारण शब्द का प्रयोग विचरण व आचरण-अनुभव करने के अर्थ में होता था। वर्तमान में भी विचरण शब्द का प्रयोग विहार करने के अर्थ में होता है। बौद्ध धर्म में ध्यान के प्रमुख ग्रन्थ महासतिपट्टान में सर्वत्र अनुपश्यी (ध्यानसाधक) के साथ विहरति (अनुपस्सी विहरति) शब्द आता है, जहाँ पर विहार शब्द का अर्थ 'यथाभूत तथागत' है, अर्थात् 'यथार्थ में जैसा हो रहा है उसे वैसा ही अनुभव करना है।' इसी आशय से धर्म-ध्यान के चारों भेदों के साथ प्रयुक्त विचय शब्द का अर्थ-विचरण-आचरण रूप अनुभव करना उपयुक्त लगता है। विचरण, चिन्तन आदि अर्थ ध्यान के लक्षण 'थिरमज्झ-वसाणं-स्थिर अध्यवसान' के बाधक होने से असंगत लगते हैं। अतः विचय का अर्थ है'यथाभूत तथागत' अर्थात् ध्यान में जैसा अनुभव के रूप में प्रकट हो रहा है उसे यथार्थ रूप में वैसा ही देखना, उसके प्रति राग-द्वेष न करना, उसका समर्थन व विरोध न करना, उससे असंग रहना। असंग रहना ही व्युत्सर्ग है। इसी अर्थ में धर्म-ध्यान के भेदों का विवेचन किया जा रहा है।
__ध्यान की उपर्युक्त परिभाषा तथा व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में धर्म-ध्यान के चार भेद आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय में विचय 38 कायोत्सर्ग
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