Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 41
________________ निराश होने लगता है और देह, दृश्यमान वस्तुएँ, जिनसे मानी हुई एकता है, वास्तविक नहीं, उनके प्रति आशान्वित, लालायित एवं प्रयत्नशील रहता है। यह प्राणी का घोर प्रमाद है। प्राणी ने देहादि दृश्यमान वस्तुओं से सम्बन्ध कब और क्यों स्वीकार किया, इसका तो पता नहीं चलता है, परन्तु वस्तुओं से सम्बन्ध वर्तमान में ही विच्छिन्न होना सम्भव है। इससे यह सिद्ध होता है कि हमारे स्वीकार करने से ही देहादि वस्तुओं से सम्बन्ध हुआ है। अतः प्रत्येक सम्बन्ध स्वीकृति मात्र से उत्पन्न होता है और अस्वीकृति मात्र से उसका सम्बन्ध नाश हो जाता है। ऐसी कोई स्वीकृति है ही नहीं जो अस्वीकृति से न मिट जाय। कोई भी स्वीकृतिजन्य सम्बन्ध ऐसा नहीं है जो अस्वीकृति के अतिरिक्त अन्य किसी अभ्यास, प्रयास से मिट जाय। इस दृष्टि से देहादि से अनन्तकाल से . सम्बन्ध चला आ रहा है, वर्तमान में उसका विच्छेद-व्युत्सर्ग हो सकता है। - देह व दृश्यमान वस्तुओं (शरीर-संसार-लोक) से व्युत्सर्ग (सम्बन्धविच्छेद) होते ही अहम् और मम का नाश हो जाता है। अहम् का नाश होते ही निरहंकार होने से अनन्त से एकता तथा अभिन्नता हो जाती है जिससे अविनाशी अनन्त तत्त्व-अमरत्व की अनुभूति हो जाती है। मम का नाश होते ही सब विकारों का नाश होकर निर्विकार, वीतराग, शुद्ध चैतन्य (सच्चिदानन्द) स्वरूप का अनुभव हो जाता है। इस प्रकार ध्यान व व्युत्सर्ग से सब पापों (विकारों) का नाश होकर आत्मा विशुद्ध एवं सर्वशल्यों से मुक्त हो जाती है, अर्थात् ध्यान से ध्याता को ध्येय की उपलब्धि हो जाती है। जिज्ञासा होती है कि क्या शरीर, इन्द्रिय, संसार, वस्तु तथा इनकी सक्रियता के बिना भी जीवन है? यदि जीवन है तो वह जीवन कैसा है? समाधान-यह सभी का अनुभव है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि की क्रियाओं, प्रवृत्तियों व विषयों का निरोध होने पर ही गहरी निद्रा आती है। उस समय इन सबकी समृति व सम्बन्ध नहीं रहता है। उस अवस्था में दुःख का अनुभव नहीं होता है। परन्तु जगने पर व्यक्ति यह ही कहता है कि मैं बहुत सुख से सोया। यह नियम है कि स्मृति उसी की होती है, जिसकी अनुभूति होती है। गहरी निद्रा में किंचित् भी दुःख नहीं था, मात्र सुख ही था। इस अनुभूति से यह सिद्ध होता है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, संसार, वस्तु आदि के बिना भी, इनके न रहने पर भी दुःखरहित सुखपूर्वक जीवन का अनुभव सम्भव है। किन्तु यह जड़तापूर्ण स्थिति है। अतः इस अनुभव का आदर न करने से ही प्राणी शरीर, संसार, वस्तु, व्यक्ति आदि के वियोग से भयभीत होता है और इनकी दासता को 40 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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