Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 42
________________ बनाये रखता है। यदि जाग्रत अवस्था में भी गहरी निद्रा के विश्राम के समान स्थिति प्राप्त कर ली जाय तो यह स्पष्ट अनुभव हो जायेगा कि शरीर, संसार आदि की क्रिया के बिना भी जीवन है और उस जीवन में किसी प्रकार का अभाव, अशान्ति, पराधीनता, जड़ता, चिन्ता, भय तथा दुःख नहीं है। अतः शरीर, संसार व भोग के सुख के बिना जीवन नहीं है-इस भ्रान्ति को त्यागकर शरीर, संसार, कषाय (भोग-प्रवृत्ति) व कर्म का व्युत्सर्ग-विसर्जन कर शान्ति, स्वाधीनता, चिन्मयता, निश्चिन्तता, निर्भयता, प्रसन्नता, अमरता की अनुभूति कर लेना साधक के लिए अनिवार्य है। यही सिद्ध, बुद्ध व मुक्त होना है। ___मैं देह हूँ"-इस मान्यता के दृढ़ होते ही इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि में भी 'मैं' की मान्यता हो जाती है, जो समस्त दोषों की जननी है। कारण कि जब इन्द्रिय और मन का अपने विषयों से सम्बन्ध होता है तब शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श से सम्बन्धित मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों का ज्ञान होता है। इस ज्ञान के प्रभाव से मनोज्ञ विषयों के प्रति राग और अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है। रागोत्पत्ति से इन्द्रियाँ विषयों की ओर, मन इन्द्रियों की ओर, बुद्धि मन की ओर गति करने लगते हैं। इस प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ-सबकी संसार या बाह्य की ओर गति होने लगती है, और हम बहिर्मुखी हो जाते हैं तथा कामना, ममता, अहंता में आबद्ध होकर सुख-दुःख का भोग करने लगते हैं। इस प्रकार इन्द्रिय-दृष्टि से समस्त विषय सुन्दर, सुखद व सत्य (स्थायी, नित्य) प्रतीत होते हैं। इस इन्द्रिय-दृष्टि का प्रभाव मन पर होता है तब मन इन्द्रियों के अधीन होकर विषयों की ओर गतिशील होता है। परन्तु जब मन पर श्रुतज्ञान युक्त बुद्धि-दृष्टि का प्रभाव होता है तब इन्द्रिय-दृष्टिजनित विषय सुन्दर, सुखद व सत्य है-यह प्रभाव मिटने लगता है। क्योंकि इन्द्रिय-ज्ञान से जो वस्तु सत्य, स्थायी व सुन्दर मालूम होती है वह ही वस्तु श्रुतज्ञान से, विवेकवती बुद्धि से नश्वर तथा विध्वंसनशील, जीर्ण-शीर्ण, गलन रूप मालूम होती है। इस ज्ञान से विषय व वस्तु के प्रति विरति (वैराग्य-अरुचि) होती है और मन विषयों से विमुख होने लगता है। इन्द्रियाँ विषयों से विमुख हो स्वतः मन में विलीन हो जाती हैं। मन बुद्धि में विलीन हो जाता है फिर बुद्धि सम हो जाती है। उस समता में स्थित आत्मा सब मान्यताओं से अतीत हो जाता है जिससे सब प्रकार के प्रभावों की अर्थात् भोग, कामनाओं, वासनाओं आदि दोषों की निवृत्ति हो जाती है। इन्द्रिय-दृष्टि से विषय-वस्तुओं में सत्यता प्रतीत होती है। उसका प्रभाव राग उत्पन्न करता है। राग भोग में प्रवृत्त करता है, किन्तु विवेक-दृष्टि कायोत्सर्ग : ध्यान की पूर्णता 41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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