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पातंजल योग सूत्र में कहा है
योगाश्चित्तवृत्ति निरोधः।1-2 चित्त की वृत्तियों का निरोध होना योग है।
अभिप्राय यह है कि जहाँ 'करना' है वहाँ क्रिया है, जहाँ क्रिया है वहाँ कर्म है। अतः ध्यान-साधना में अपनी ओर से कुछ भी करने का निषेध है। ध्यानसाधना में करना 'होने' में बदल जाता है जिससे शरीर व चित्त आदि के स्तर पर जो भी घटनाएं घटती हैं, संवेदनाएँ आदि प्रकट होती हैं वे साधक को मात्र दिखती हैं, उनका मात्र दर्शन-ज्ञान होता है, वह प्रयत्नपूर्वक 'देखता' नहीं है। जैसे हम रेल में यात्रा कर रहे होते हैं उस समय बाहर की वस्तुएँ दिखाई देती हैं, उन्हें देखने व जानने की क्रिया नहीं करनी पड़ती है। वे अपने-आप दिखती हैं उन्हें देखने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता। प्रयत्न में काया का आश्रय लेना पड़ता है। काया का आश्रय रहते कायोत्सर्ग कदापि सम्भव नहीं है।
पूर्व में कह आए हैं कि चित्त का निश्चल-स्थिर होना ध्यान है। चिन्तन, मनन, अनुप्रेक्षा, भावना, संकल्प, विकल्प आदि से चित्त सक्रिय-अस्थिर रहता है, निश्चल नहीं होता है, अतः तब तक ध्यान नहीं होता। इन सबसे परे होने पर ही चित्त शान्त व स्थिर होता है। इसे ही समाधि कहा गया है। प्रकारान्तर से कहें तो निर्विकल्प-स्वसंवेदन, चैतन्य रूप दर्शनोपयोग ध्यान है। दर्शन रूप होने से ध्यान को अनुपश्यना व विपश्यना कहा जाता है। अनुपश्यना-विपश्यना शब्द 'पश्य' क्रिया से बने हैं। ‘पश्य' शब्द दृश् (दर्शने) धातु से बना है। अतः ध्यान दर्शनमय होता है। दर्शन निर्विकल्प, स्वसंवेदन रूप होता है। जैसा कि ध्यान का वर्णन करते हुए तत्त्वानुशासन में कहा है
तत्राऽऽत्मन्यासहाये यचिन्तायाः स्यान्निरोधनम्। तद्ध्यानं तद्भावो वा स्वसंवित्तिमयश्च सः।।65॥
अर्थ-किसी भी सहायता (आश्रय) से रहित आत्मा में जो चिन्ता का निरोध है, वह ध्यान है अथवा जो चिन्ता के अभाव व स्वसंवेदन रूप है, वह ध्यान है।
पाहुडदोहा में कहा हैजिमि लोणु विलिज्जइ पाणियहं तिमि जइ चित्तु विलिज्ज। समरसि हवइ जीवड़ा काई समाहि करिज्ज।
-पाहुडदोहा, 176 कायोत्सर्ग : ध्यान की पूर्णता 37
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