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जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं। तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता॥
-गाथा 2, ध्यानाध्ययन, धवला टीका, पुस्तक 13, गाथा 12 स्थिरमध्यवसानं यत् तद् ध्यानं येच्चलाचलम्। सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव ।।
-आदिपुराण, 21-9 अर्थ-जो स्थिर अध्यवसान (मन) है, वह ध्यान है। इसके विपरीत जो चंचल (अस्थिर) चित्त है, उसे भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता कहा जाता है। ये सब मन की प्रवृत्तियाँ या क्रियाएँ हैं, अतः इन्हें ध्यान नहीं कहा जा सकता। अभिप्राय यह है कि जहाँ क्रिया व कर्तृत्व है वहाँ कायोत्सर्ग नहीं है।
ध्यान में काया, वचन और मन से प्रवृत्ति या क्रिया करने का निषेध 'द्रव्य संग्रह' में स्पष्ट शब्दों में किया है
मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं॥
-द्रव्य संग्रह, 56 अर्थ-हे साधुओ! तुम काया से कुछ भी चेष्टा मत करो, वचन से भी कुछ मत कहो और मन से कुछ भी चिन्तन मत करो; जिससे आत्मा आत्मा ही में स्थिर होता हआ रमण करे, यही परम ध्यान है।
ध्यान में किसी विशेष आसन, स्थान, समय आदि का महत्त्व नहीं है, महत्त्व मन-वचन-काया के योगों के समाधान (स्वस्थता) का है, यथा
सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देस-काल-चेट्ठासु। वरकेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा॥ तो देस-काल-चेट्ठानियमोः झाणस्स नस्थि: समयंमि। जोगाण समाहाणं जह होइ तहा (प) यइयत्वं ॥
. -ध्यान शतक, 40-41........ .. अर्थ-मुनियों ने सभी देश (स्थान), काल और चेष्टा की अवस्था में अवस्थित रहते हए अनेक प्रकार के पापों को नष्टकर सर्वोत्तम केवलज्ञान आदि को प्राप्त किया है, अतः ध्यान के लिए आगम में किसी विशेष देश, काल, चेष्टा, आसन आदि के होने का नियम नहीं कहा है किन्तु जिस प्रकार से भी योगों का मन, वचन, काया का समाधान (स्वस्थता स्थिरता, निर्विकारता) हो, उसी प्रकार का यत्न करना चाहिए।
कायोत्सर्ग : ध्यान की पूर्णता 35
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