Book Title: Kayotsarga
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ हैं। चित्त की शान्ति बढ़ती जाती है जिससे निर्विकल्पता बढ़ती जाती है। निर्विकल्पता जितनी-जितनी बढ़ती जाती है, उतनी-उतनी चिन्मयता प्रकट होती जाती है। चिन्मयता-चेतनत्व बढ़ता जाता है, जड़ता टूटती जाती है, शरीर और संसार के प्रति ममत्व व तादात्म्य घटता जाता है। देहासक्ति-देहाभिमान गलता जाता है, देहातीत होने की क्षमता बढ़ती जाती है अर्थात् ध्यान कायोत्सर्ग में परिणत होता जाता है। इस प्रकार ध्यान-कायोत्सर्ग को पुष्ट करने की साधना है। ध्यान में ध्याता और ध्येय का ज्ञान रहता है। मैं ध्याता हूँ, ध्यान कर रहा हूँ-यह कर्तृत्व भाव व अहंभाव (अभिमान) विद्यमान रहता है। जितना साधक ध्यान की गहराई में उतरता है, उतना ही कर्तृत्व एवं अहंभाव क्षीण होता जाता है, देह से अतीत अवस्था एवं वीतरागता की ओर बढ़ता जाता है और अन्त में पूर्ण अप्रयत्न हो जाता है। यह कायोत्सर्ग से प्राप्त अप्रयत्न अवस्था कर्तृत्व-भोक्तृत्व से रहित कर, ज्ञाता-दृष्टा भाव से अतीत वीतराग कर देती है। सारांश यह है कि कायोत्सर्ग वीतरागता व समाधि की अवस्था है और ध्यान इसे प्राप्त करने की साधना है। इस प्रकार कायोत्सर्ग व समाधि साध्य हैं और ध्यान कायोत्सर्ग के उपलब्ध करने की साधना है। यह ही इनमें अन्तर है। प्रकारान्तर से कहें तो ध्यान कारण है और कायोत्सर्ग उसका कार्य है। अतः ध्यान के बिना कायोत्सर्ग सम्भव नहीं है। कायोत्सर्ग में ध्यान विलीन होता है। अतः कायोत्सर्ग के वर्णन में ध्यान का वर्णन आना सम्भव है। इसे पुनरावृत्ति नहीं समझा जाना चाहिए। कायोत्सर्ग कर्म-निर्जरा की साधना में ध्यान से ऊपर की सीढ़ी है। ऊपर की सीढ़ी नीचे की सीढ़ी पर टिकी (ठहरी) होती है। इसलिये ध्यान से भले ही कायोत्सर्ग के सर्वांश का बोध नहीं हो, कायोत्सर्ग में ध्यान का चरम शुद्ध रूप समाहित रहता है, अतः कायोत्सर्ग के साधक को ध्यान का जानना आवश्यक नहीं है, किन्तु ध्यान के साधक के लिए ध्यानोत्तर अवस्था का जानना अपेक्षित है। जिस प्रकार ध्यान के लिए अनित्य, अशरण आदि का स्वाध्याय आलम्बन रूप है उसी प्रकार 'ध्यान' कायोत्सर्ग का आलम्बन है, परन्तु जैसे स्वाध्याय से ध्यान अलग है उसी प्रकार ध्यान से कायोत्सर्ग अलग है। ध्यान और कायोत्सर्ग, दोनों से पापकर्मों की निर्जरा होती है। इस दृष्टि से ध्यान और कायोत्सर्ग में एकता है, परन्तु जैन धर्म में साधना का चरम लक्ष्य निर्वाण या मोक्ष प्राप्त करना है, जिसमें जीव का शरीर, संसार, कर्म और कषाय आदि समस्त लौकिक पदार्थों से सर्वांश में सदा के लिए सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् साधक इनका व्युत्सर्ग कर देता है। ध्यान और कायोत्सर्ग में महत्त्वपूर्ण अन्तर है : ध्यान में चित्त किसी विषय पर एकाग्र व सजग होता है; 32 कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132